By Jagat Singh
आओ तुम्हें नई दुनिया दिखाता हूँ
एक दबे, कुचले कवि के जीवन की सहर कराता हूँ...
मासूम सा दिखता था, करता था ना बातें ज़्यादा
शोर-शराबे से दूर,
दिन से अच्छी लगती थीं रातें ज़्यादा।
सच्चा था, समझदार था,
दिल का अच्छा, पर इस दुनिया से अनजान था।
शौक़ था लिखाई का —
ज़मीन देखकर आसमां तक लिखता था।
लिखाई दर्पण थी ज़माने की,
शब्दों में हक़ीक़त पिरोता था।
उसने लिखा था झूठ, फ़रेब को,
क़िस्सा मंदिर-मस्जिद में बैठे अधर्मी का,
राजनीति खाती गोता धर्म का,
नेता बैठे ओढ़ के चोला बेशर्मी का।
धर्म के ठेकेदारों को, उसकी कला खटक गई,
ना जाने कितनी तलवारें उसके हलक पर लटक गईं।
बता के धर्म के विरोधी, करके नंगा समाज में,
कुछ संस्थाएं उसकी इज़्ज़त गटक गईं।
समाज की नसों में जो भरा है ज़हर, दिखाता हूँ —
एक दबे, कुचले कवि के जीवन की सहर कराता हूँ...
आँच उठी थी उसके भी अहम पर,
पर सब सहन कर बैठा।
जिनको दिखानी थीं आँखें,
उन पर रहम कर बैठा।
करना था जहाँ पर इज़हार,
वहाँ पर शर्म कर बैठा।
लिखा था उसने भी प्रेम पर —
और फिर प्रेम कर बैठा।
एक लड़की थी उसके जहन में,
रोज़ आती थी उसके ख़याल में।
उसने प्यार समझा और सच्चाई को नकार दिया,
श्राप मिला था उसे प्रेम की खाल में।
श्राप ऐसा जो कर दे भ्रमित उसकी मति को,
बढ़ा दे धड़कन दिल की, और रोक दे जीवन की गति को।
पर इतने में कहाँ होती है संतुष्टि —
जब तक मिट न जाए हस्ती।
फिर प्रेम ने उसको लूटा, कसूटा,
तोड़ा, मरोड़ा और रगड़ दिया पैरों तले।
हृदय से उसके आह निकली —
पर अटक गई आकर उसके गले।
रो भी न पाया था, कह भी न पाया था —
हुआ था कैसा कहर, दिखाता हूँ।
एक दबे, कुचले कवि के जीवन की सहर कराता हूँ।
जब लौटा थक-हार के दुनिया से घर अपने,
खो के अपने सारे जीवन के सपने,
मिला न कोई थामने को उसे।
माँ थी बीमार उसकी,
लहू के घूँट पी रहा था अब तक,
हो गया लहू अब नीर नसों में।
छटपटाता रहा, पर टाल न सका जो होनी थी — अनहोनी को।
लेके लोटे में जीवन भर की यादें —
पहुंचा गंगा किनारे।
दोज़ख में रहा, वो ज़मीन पर रहकर।
चुपचाप खड़ा था सब कुछ सहकर।
आँख से आँसू निकले बहकर —
और अस्थियाँ गंगा में बह गईं।
सब कुछ सह गया था वो,
पर इस बार उसकी दुनिया पल भर में ढह गई।
इतना सब कुछ सह कर भी, सच्चाई न जान पाया था —
आख़िर मृत्यु ही तो है सत्य जीवन का।
छोड़ गए थे अपने सारे,
बस तन था जो साथ खड़ा था,
रूह भी थी जो डरी, सहमी पड़ी थी।
फिर... नज़र न उसको जीवन आया।
करके माँ और धरती माँ को अंतिम प्रणाम —
गंगा माँ में बह गया।
जो व्याप्त हैं अधर्मी,
प्रेम के भक्षक इस निष्ठुर दुनिया में —
सबको अलविदा कह गया।
बहती उसके नाम की गंगा में एक लहर दिखाता हूँ —
एक दबे, कुचले कवि के जीवन की सहर कराता हूँ...