By Isha Jain
सबको प्यारे लगते हैं,
बगिया के वो नन्हे गुल,
जिनके कदम डगमगाते,
शब्द अबूझ से, फिर भी रस घोल ।
कुछ वक्त बाद वो उड़ते हैं हवाओं में,
उनकी किलकारी जैसे शबनम की बूंद।
मुस्कान उनकी, सहर की एक लहर,
जो बगिया को करती रौशन हर सुबह।
हर बहती नदी गुनगुनाती तराना,
उस गुल का, जो माली का फ़साना।
वो माली, जो परछाई बन खड़ा रहा,
हर तूफ़ान में गुलशन को बचाता रहा।
जब घटा गरजी, वो छत बन गया,
जब अंधेरा बढ़ा, वो दिया बन गया,
उसके लहू से सींचा वो गुल,
उसकी दुआओं से महका हर पल।
वक्त ने झुर्रियां लिख दीं हथेली पर,
जुल्फें काली अब सफेद रंगी गईं।
पर ममता की नदिया वही रवां,
आज भी गुलशन है उनसे जवां।
वो माली अब भी वही प्यार लुटाते,
जैसे आफ़ताब अपनी किरन बरसाते।
कैसे शुक्रिया अदा करें उन,
फरिश्तों का जो साथ चले,
वो फूल इस उलझन में,
भी मालीयो की ओर देखे ।