कटघरा – Delhi Poetry Slam

कटघरा

By Hemadri Sharma

अक्षर की लाठी ज़ोर पकड़
कुछ ज्ञान की मुठ्ठी खोल कर
बस आधी कथा पूरी थी पढ़ी
पर पूरी कथा अभी बाकी है

खाली पन्नों की झांकी में
जो सूख स्याही दिखी नहीं
वो नाम आँखों की बारिश में
सागर बन - बन के बहती है

हर सुबह धूप परदे को भेद
मैली पुस्तक तक पहुँच गई
जो रौद्र रूप के लेख लिए
श्रृंगार रूप में रहती है

मैं शब्द कहूँ या शपथ कहूँ या बोलूँ इनको शंखनाद
जो कहर कलम बरसाता है, तीरों के बस की बात नहीं

इन शब्दों की क्षमता पर जब-तब भीषण प्रश्न हज़ार पड़े
सभी सक्षम, दुर्लभ, बेबाक-अदब, कटघरे में जोड़े हाथ खड़े

जहाँ क से काँपती उठी थी कागज़ी कहानियाँ
क कवि का खोजता है कर्ज़ की निशानियाँ
ट से टुकडे टुकडे होके बिखेर होंगे ख़्वाब जो
सब मिलेंगे दफ्तरों में देख आफताब को
घ से घोषणा हुई, तू घूँट घूँट पी गया?
कल जिस कला पे गर्व कर्ता, आज कैसे बेहया?
फिर र रियाज़, र रुबाब, र से राज- रंक है
र से ही सभी रिवाज़ काटे जिसने पंख है

कलम मेरा बीमार है
जो पूछे बार बार है
क्या दर्ज हैं डलीले?
क्या दर्ज है हताशा भी?
जो धर्म बेच कर मिला,
क्या दर्ज वो मुनाफा भी?
जो दर्ज कर रहा तो कर,
तु तख्त भी तमाशा भी

दीवारों पर, अख़बरो में, पुस्तक में, हाथ पे, नारों में
कुछ बुन कपड़े के धागों में, कुछ बहे रेत के भागों में
उस तेज चमकते माथे पर, उस झुकी पीठ के ढांचे पर
कुछ पिता की अर्ज़ी हाथ लिए और शस्त्र शास्त्र का सार लिए-

उत्तर में सारे कलम मिले
कुछ तेरे भी, कुछ मेरे भी

बोले,
की मैंने तेरे वेद लिखे और मुझसे ही इतिहास गवाह
जब द्वन्द्व बोलियों का विराट, विद्रोह की गर- गर चली हवा

है धर्म - अधर्म की क्या बिसात जब देवी दर निर्दोष खड़ी
मूँछों बिन्दी की राह में क्यों बरसों की पुरानी सोच पड़ी
हर कलम जनाना नतमस्तक है, हर शोषित हुंकार पर
देवों के देव भी झुकते हैं जिस शक्ति की ललकार पर

अब सुख से थोड़ा उठ परे,
कथा को तू विशाल कर
सत्य की कठोरता को
गढने की मजाल कर

तु लिख अमन की आरती
तु लिख समय की त्रासदी
इस कटघरे की दर पे तू
उठा हर कलम जो काँपती!!

- हेमाद्री


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