अलीगढ़नामा – Delhi Poetry Slam

अलीगढ़नामा

By Hamzah Gayasuddin

अमल से ज़िंदगी बनती है,
अमल से होता है इख्तियार फिरदौस,
अमल से मिलती है ज़ौक़,
अमल से मिलती है शौक़,
अमल से आता है नियाज़,
अमल से आता है नाज़ ।

इसी रोशनी-ए-अमल-ए-फुरकान की तलब में चला आता है तालिब रोशनी-ए-शोखसार के पास।
चला आता है उस पाक मिट्टी के रुबरु
चला आता है उस नहर के नज़दीक-
जिसकी आब है वादी-ए-नज्द-ओ-हिजाज़ के मानिंद,
चला जाता है वो तालिब जिस रुख़ ले जाती है उसको वो ठंडी हवा-
वो हवा जो आकर रुकती है तेरे दर पर ऐ-शहर-ए-कोहसार-ए-अलीगढ़।

तालिब: फ़क़त इल्म-ओ-अमल-ओ-हिक्मत की इल्तेजा थी तुझ से, ऐ-शहर-ए-मुक़द्दस 
फ़क़त इक प्यास थी, फ़क़त इक आस थी,
फ़क़त चाहता था मैं कि सरापा तेरे नहर से इल्म हासिल करूं,
लेकिन इस चमन में कोई देखने वाले ही नहीं
इस दर्द-ए-दिल को कोई समझने वाले ही नहीं।

तालिब अपने चमन से: मेरे शिकवे को नाला-ए-फ़िराक़ न समझना
न ही समझना इस गुलिस्तां को मर्सियाखां,
पर सुन ले मेरी गिला ऐ शहर, ऐ चमन,
 कि मुश्किल-कुशा रहा ये सफरनामा,
तस्कीन-ए-मुसाफिर कभी न मिली-
आ देख मेरा हज़रनामा।

आयात-ए-इलाही की तलाश थी मुझको तेरी गुलिस्तां में
जो थी रोशन-ए-बा-क़मर लेकिन पोशीदा
तब जाना मैने कि ये रोशनी-ए-इल्म-ओ-हिक्मत है मेरे लिए बरगज़ीदा।

तालिब खुदी से: आसमान-ओ-ज़मीन एक है, मर्द-ओ-ज़न एक है, मज़हब-ओ-मंतिक एक है, नूर-ओ-नार एक है, तू एक है, तू यहां है, इसी क़ायनात में है
तू काबिल है, तू काबिल है, तू काबिल है।

खुदा तालिब से: वक्त की क़द्र कर नादान
कारवान-ए-ज़िंदगी अभी बाक़ी है,
तू कोशिश कर, तू मेहनत कर
कोई काबिल हो तो हम शान-ए-कई देते है
ढूंढने वालों को शहर क्या दुनिया भी नई देते है।


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