खदु-शि फ़ाई – Delhi Poetry Slam

खदु-शि फ़ाई

By Gulnaar Sheetal Bhan

वो जिसने चमू जान फूंक दी थी सीनेमें,
जो कभी नूर कभी जान–ए–जहान कहता था,

जो कभी आग सांस बनके मेरी आहों की,
मेरे होंठों के वहीं आस पास रेहता था,

जिसकी खुशबू थी जलाती हुई फुहारों में,
जो मेरी अपनी उँगलियोंसे मुझे छूता था,

वही झूठा सा सगं दिल, जो दिवाना था मेरा,
मझु को छूपानेको बड़ी सी बात केहता था,

उसकी अब मुझ को ज़रा सी भी ज़रुरत न रही,
मेरे हर्फ़ों में जिसका रंग बहा करता था।

जला था घर मेरा, आंखों में धुएं थे कल के,
जो रूला देता था, बारां–ए–खुदा लगता था।

साफ आंखों से देखती हूं  खदु-शिफ़ाई अपनी,
जो पहले मर्ज लगती थी, वो दवा लगता था।

“चल दफ़न हो जा, क्यों यूं खौफज़दा है गुलनार?”
कोई था बागबान अदंर, जो सदा देता था।

जो मुक्कमल हो मोहब्बत, क्या वही जायज़ है?
जो पते पर नहीं पहुंचे क्या वो खत कागज़ है?

वफा को ढूंढते हुए, ठोकरें खाते हुए, 
लड़खड़ाने में संभालने का सबब रहता था।


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