टूटी दीवार से आती किरण – Delhi Poetry Slam

टूटी दीवार से आती किरण

By Girish Pillai

आज फिर ख्वाबों के दीये जलाना भूल गए,
ज़िन्दगी की आँधियों में से, ख्वाबों को निकालना ही भूल गए,
ठहरे थे खिड़की खोल के उजाला देखने को,
आज फिर टूटी दीवार से आती किरण को देखना भूल गए।

महंगे चश्मों से ज़िन्दगी को चमकीला बना रहे थे,
ख़्वाहिशों के चक्कर में ख़ुद को अकेला बना रहे थे,
बड़ी खुशियों के चक्कर में, छोटी हँसियाँ भूल रहे थे,
आज फिर टूटी दीवार से आती किरण को देखना भूल गए।

संगे मरमर में सोने के चक्कर में कल की चाह जगा रही थी,
कल की नींद के चक्कर में आज की रात की जागा रही थी,
ना नींद पूरी हुई ना चाह पूरी हुई, दोनों के चक्कर में ज़िन्दगी लगाए हुए थे,
आज फिर टूटी दीवार से आती किरण को देखना भूल गए।

पुरानी कमीज़ के छेद में से अपने बच्चे सपने देख रहे थे,
और उनकी कमीज़ें बनाने में अपने सपनों में छेद कर रहे थे,
आलम ये है कि ना छोटी कमीज़ बनी और ना छोटे सपने पूरे हुए,
आज फिर टूटी दीवार से आती किरण को देखना भूल गए।

कोई लाया था बक्सा सपनों का, ज़िन्दगी ने उस बक्से की चाबी खो दी,
लोगों ने बताया पड़ी है यहीं कहीं ढूंढ लो, अपने परिश्रम से बाँध लो,
ज़िन्दगी भर बक्से को संभाल के रखा और चाबी ढूंढते रहे,
आज फिर टूटी दीवार से आती किरण को देखना भूल गए।

रिश्तों की डोर पिरोने में, खुद का मांझा भूल गए थे,
गैरों की जेब भरते-भरते, खुद की फटी जेब सीलना भूल गए थे,
घर में उजाला लाने के लिए, खुद को जला रहे थे,
आज फिर टूटी दीवार से आती किरण को देखना भूल गए थे।

ज़िंदगी के शोर में ख़ामोशी की अहमियत भूल गया था,
आज की जवानी कल को रिझाने के चक्कर में भूल गया था,
पूरी ज़िंदगी गुज़ारी रौनक ढूंढ़ने में,
टूटी दीवार से आती किरण को देखना भूल गया था।


Leave a comment