By Gaurav Kumar

नदियों के प्रवाह का,
क्या है नियम,
बादलों,हवाओं का क्या है भरोसा,
सागर के गहराई का
किसे है पता,
अम्बर की उँचाई कितनी है,
सावन के मौसम में
जो सँवर जाते हैं,
पतझङ में वही बिखर जाते हैं,
प्रेम में,
नहीं हूँ मैं मानवीय प्रेम जैसा,
प्रेम में हूँ मैं,
बरखा की बूँदों के जैसा,
सागर की मौज़ सरीखी लहरों के जैसा,
ये चाँद पर 'चन्द्रबिन्दु' किसने लगाई,
ये चन्द्रबिन्दु न हो तो क्या चाँद न होगा,
स्त्रियों के,
गर्भ से जन्म लेने वाले पुरूष,
स्त्रियों पर पौरूष दिखलाते हो,
स्त्रियों के लिए नियम बना कर,
उन्हें बेङियो में रखते हो,
साक्षी है इतिहास यहाँ,
जब-जब हुआ कोई
स्थितप्रज्ञ यहाँ,
उतर आया उसमें प्रेम,करूणा,अहिंसा,त्याग,
परोपकार,स्त्रियों के जैसा।
अपने समाजिक,नैतिक नियमावली में,
किसी को श्रेष्ठ,
किसी को निकृष्ट बतलाते हो,
पानी के बिना,
क्या अपनी प्यास बुझा लोगे,
हवा के बिना,
कितनी देर ज़िन्दा रह लोगे,
प्रकृति में विद्यमान,
सभी का है;अपना मूल्य यहाँ,
स्वभाव यहाँ,
धर्म,समाज,निति-अनिति का
नियम बनाने वाले,
लोगों को उपदेश देने वाले,
जिस दिन न होगें तुम,
जिस दिन न होऊँगा मैं,
तो उस दिन क्या,
सनातन की सुगंध न होगी,
तो उस दिन क्या,"शाश्वत" का
धर्म और नियम न होगा,
नहीं पृथक,नहीं अन्यथा मैं प्रकृति से,
प्रकृति का ही हूँ मैं,
प्रकृति के जैसे ही हूँ मैं,
मैं के अहम् से,सम्बोधन से,
भाव से हो मुक्त,स्वतंत्र,आज़ाद,
सभी हैं यहाँ प्रकृति के जैसे।
प्रकृति है केवल यहाँ;सनातन,
सनातन है सभी प्राणियों का स्वभाव,
सभी प्राणियों का स्वभाव है प्रेम,
और प्रेम ही है;सनातन,
जिसकी सुगंध,सदा और सर्वत्र रहेगी।
Thanku .