कवि – Delhi Poetry Slam

कवि

By Esha Nautiyal 

मेरे अंदर का कवि अब नज़र नहीं आता,
नहीं महसूस होता खुदा का होना खुद में।
ना मैं वो किरदार हूं जिसपे तुम्हें यकीन हो,
ना वो हकीम हूं जो तुम्हारा दर्द मिटा पाए।

खाली हूं-यहाँ न खुदा है न शैतान,
ना अकेला पन्ना है और ना ही तन्हाई।
यहाँ तुम्हें बस मेरे अपनों का दर्द दिखेगा,
ये दर्द मैं अपने कंधों पे लिए जहाँ में घूमती हूं।

किसी पे नहीं कर्ज़ मेरे इतने बेगर्ज़ होने का,
ना मांगा किसी ने उनके बोझ कम करने का साथ।
खुद ही चल देती हूं सबके मायूस होने पर उनके साथ,
और हँसता है कोई तो थोड़ा हँस देती हूं।

यही है मेरे होने का एहसास-
मैं हूं अपनी माँ की आवाज़,
पिता के कभी-कभी गिरे आँसुओं का राज़,
और अपने भाई का वो कवच,
जो उसे काफी वक्त मुखौटा बनाना पड़ता है।

मैं ये सब हुई-
बस वो कवि नहीं जो तुम्हें कभी नज़र आता था।


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