By Archana Thotha

ज़िंदगी तो खुशियों में मग़रूर रहने में थी…
तुझे अपना अक्स, अपना गुरूर कहने में थी।
वो एहसासों का जाम जो तेरे नैनों से छलकता था,
उन्हीं में अपनी रूह के सुरूर को क़ायम करने में थी।
ये कैसा मंज़र है ज़िंदगी का… जहाँ सिर्फ़ ग़म है??
मैं आज भी वही 'मैं' हूँ, तुम आज भी वही 'तुम' हो…
पर दूर कहीं जब देखा तो, बेगानों की भीड़ में खोए हम हैं।
ये 'मैं' और 'तुम' की कहानी अब यूँ ही गुज़र जाएगी
और
हमारे न होने का ग़म जो क़ैद है इस दिल के एक कोने में
छलकता रहेगा हर सहर, हर सांझ..
आज से इस ज़िंदगी के होने तक!