By Dr Vibha Vashisht
पिछले कुछ दिनों से
मैं बर्फ़ की सिल्ली हो गयी हूँ
सूखी ज़मीन पर ,
धुएँ की तरह फैलती जा रही , ख़ामोश ख़ामोश सी |
वक़्त की आरी हर सुबह मुझे सिर से चीरना शुरू करती है
और
शाम तक चीर कर रख देती है |
लेकिन
तब तक मेरा आधा धड़ जुड़ चुका होता है
और
फिर से अगली सुबह काटे जाने के लिए
मैं
अपने आप को तैयार पाती हूँ
शायद इसलिए कि
पिछले कुछ दिनों से मैं बर्फ़ की सिल्ली हो गई हूँ |
जब से ऐसा कुछ मैंने महसूस किया है
मुझे ,
लोकल बसों में धक्के खाना नागवार नहीं लगता
क्यूंकि
बाज़ार में चलने वाले सिक्के पर
किसी एक का अधिकार तो नहीं होता
और
फिर लाश को हाथ तो सिर्फ़ सिरफ़िरे ही लगाते हैं |
मैं
अपने आप को शिथिल शिथिल सा महसूस करती हूँ और शीतल भी
क्यूँकि
पिछले कुछ दिनों से मैं बर्फ की सिल्ली हो गई हूँ
अक्सर
ऑफिस में टंगे कैलेंडर में
मैंने
अपना चेहरा देखना चाहा है
जिसमें
मेरा जन्म पहली तारीख को होता है
और
हर तीस दिन बाद
एक परत उधेड़ कर
मुझे ,
अगले माह का पायदान बना दिया जाता है
इस बीच
स्थिर रह कर भी ,
मैं
लगातार रिस रही हूँ
शायद इसलिए कि
पिछले कुछ दिनों से मैं बर्फ की सिल्ली हो गई हूँ
सूखी ज़मीन पर धुएँ की तरह फैलती जा रही ख़ामोश ख़ामोश सी …………..
Very beautifully expressed the feelings of a woman….और हां….बरफ की सिल्ली पिघल कर अस्तित्व हीन तो हो ही जाती है न …लेकिन अब दशा और दिशा हम ही बदलेंगे…
" बहुत करीब है मंज़िल ऐ दिल ..उदास न हो "
Very nice
एक बहुत सुंदर और संवेदनाओं से परिपूर्ण कविता. जिसे शब्द देने से पहले रचियता को उसे महसूस करना पड़ता है और अपने हृदय में संजोए रखना पड़ता है. फिर एक शाम वो भाव हृदय से लेखनी में उतर आते हैं.
U have poetic bend, that delivered appreciably but be aware of underlined current, which I would not like you to negotiate
All the best all the more !
भाव बहुत सुंदर रूप से शब्दों में उभरा है।
मूल विचार पर प्रश्न है… बर्फ की सिल्ली एक अस्तित्व है जिसके अपने गुण और प्रक्रिया है, यह या इसे धारण करने वाला अस्तित्वहीन कैसे है?
Very well written but why are you so sad.