निगल गया ! (ग़ज़ल) – Delhi Poetry Slam

निगल गया ! (ग़ज़ल)

By Dr.Alpesh Kalasariya

 

 

ये कैसी चाबियाँ थी जो ताला निगल गया !
सूरज ही आ के मेरा उजाला निगल गया !

वो चाँद था या रात का फोड़ा पता नहीं,
एक बच्चा माँ के हाथ का छाला निगल गया !

कुछ रुखी-सूखी आरज़ू कुछ कच्चे ख़्वाब थे,
वो भूख थी कि मुँह में जो डाला निगल गया !

मुझ को बहुत गरूर था अपने वजूद पर
मुझ को तो एक मकड़ी का जाला निगल गया !

मैं आसमाँ हूँ और मेरी कीमत यही है दोस्त !
जिस को भी अपने रंग में ढाला निगल गया

अब इतनी सादगी तो किताबों में ही रहे,
जिस से भी मेरा पड़ गया पाला निगल गया !

मैं नंगे पाँव था मगर उस का करम तो देख,
रस्ता ही मेरे पाँव का छाला निगल गया !

अब तो मुझे दे दो मेरे हिस्से का आसमान,
मेरी ज़मीन गाँव का लाला निगल गया !

'अल्पेश' मोतीओं की तो औकात क्या यहाँ,
देखा समंदरों को भी प्याला निगल गया !


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