By divya Vikas kaul
हे शिव !
क्या तुम आओगे?
इस कलयुग में जीने को,
बोलो, क्या फिर आ पाओगे??
एक बार और हलाहल पीने को?
इस बार विष नहीं है साधारण;
आना लेकर हरएक निवारण,
मथना नहीं है किसी सागर को-
पाना नहीं है अमृत की गागर को,
इस बार मोहिनी का साथ न होगा!
स्वरभानु का गात न होगा ….
पग पग पर परीक्षा होगी!
हर पथ पर तुम्हारी ही प्रतीक्षा होगी
मानव-दानव में भेद नहीं है
साथ तुम्हारे कोई देव नहीं है
कुरुक्षेत्र सा रणक्षेत्र नहीं है
और तुम्हारे पास तीसरा कोई नेत्र भी नहीं है
कर पाओगे?
बोलो क्या तुम आओगे?
मत आना बनकर अवतारी
व्यापार बना देगी दुनिया सारी
कर लेना तुम पूरी तैयारी
मानव को मानव कर देना
हो सके तो दानव में भी मानव सा हृदय रख देना
कर देना तनिक अँधेरा दूर
और लालसा को भेज देना बहुत दूर
छल-प्रपंच और ईर्ष्या भी क्या भगा पाओगे
बोलो, क्या तुम ये कर पाओगे?
क्या फिर नीलकंठ बन पाओगे?
तुम तो देवों के भी देव हो
तुम ही तो महादेव हो
एक बार आ जाओ
हमको भी विषपान सिखा जाओ
शायद हम मानव भी जी जाएं
अपने अंदर के विष को पी पाएं
बोलो क्या ऐसा कर पाओगे?
हे शिव क्या तुम आओगे?