निष्ठुर – Delhi Poetry Slam

निष्ठुर

By Digvijay Tiwari

रात ढलते ही पिघलते,
इस जिगर ने चीख दी।

छोड़ दे ये मोह-माया,
वैराग्य की अब सीख दी।

बंद कर वो कारखाने
मृदु भावों का जो सृजन करें,
छोड़ दे वो संगठन
जो दूरियाँ उत्पन्न करें।

तू हल चला अब इस कदर
कि स्वेद धरती को पिला,
अर्जन न रुकने पाए धन का
गर रक्त तेरा ना जला।

ले जकड़ कोमल हृदय को
प्रस्तर की सख़्त ज़ंजीर से,
खिन्न अनुताप शोकार्त भावों
का पलायन हो सके।

निष्ठुर है, हो जा तू सही,
अब यूँ अकड़ते वृक्ष सा।

तन से लगा पाला जिसे,
वो फल तो लोभी ले गया—
पर ये उदासीन गाछ तो
मदमस्त हो लेहरा रहा।

कुछ खड़ी उपरान्त खोने,
इक नया फल ला रहा।
कुछ खड़ी उपरान्त खोने,
इक नया फल ला रहा।


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