By Deepak Parihar

वो दिन वो राते ही अच्छी थी,
जब बैठना होता था मुझे मेरी माँ के साथ,
डाट थी माँ पिता की हर रात एक आद
फिर भी सुलाती थी माँ मेरी, अपनी कहानियों के बाद।
क्यों मुझे उस रात सपने अपनी मंजिल के आए,
रास्ते ये कुछ, मुझे मेरी माँ से दूर ले आए।
कहती दुनिया, अनपढ़ अज्ञानी है माँ मेरी,
ज्ञान विज्ञान से है उसकी दूरी,
पर लगता मुझको, दुनिया हैं झूठी,
ज्ञान - मात्र बिन्धु, पहचान है अधूरी।
वक्त है तूलना का, ज्ञानी और अज्ञानी में अंतर समझने का,
समझ पाये तो वक्त है, शीश झुका उसे प्रणाम करने का।
संघर्ष कर, सिखाया उसने चलाना है,
ख्यालों में पहला जिक्र पहला शब्द उसका आया है,
किताब ने नहीं, उसके दृढ़ निश्चय ने मुझको ज्ञान दिया है।
तो कैसे कहूँ, उसको अज्ञानी,
बनाया जिसने मुझे परिपूर्ण सिंधु है।
Beautifully written bhai.
माँ शब्द अतुल्य है ।