By Chandan MK
उन्होंने मुझे तोड़ने की साज़िश रची,
कुछ अजनबी लोगों के साथ मिलकर जाल बुना,
उन अजनबियों ने छलावा देकर अपने शहर बुलवाया,
और मैं चला भी गया... विश्वास लेकर, ज़रूरत से ज़्यादा।
पर शायद उसी वक्त...
कायनात ने समानांतर एक खेल रच रखा था,
आने वाली परिस्थितियों में भावनात्मक रूप से
खुद को सँभाल सकूँ, इसलिए एक प्यारा सा
मासूम दोस्त पहले से भेज रखा था।
धीरे-धीरे उस इंसान से एकतरफा प्रेम हो गया,
काम तो करता रहा मन से —
पर कब दिल जुड़ गया, समझ न पाया।
गणेशा से, और कुछ अपनों से — उनकी बातें करने लगा।
समय बीतता गया, और सब आगे बढ़ता गया...
धीरे-धीरे वो अजनबी, जो अपने जैसे लगे थे,
असली रंग दिखाने लगे।
कुछ पुरानी बातों को बार-बार पूछकर और दोहराकर,
मुझे असहज महसूस करवाया, बहुत बार डराया।
साज़िश इतनी गहरी और पुरानी सी लगी,
जैसे कुछ पुराने अपनों ने पीठ में खंजर घोपा हो।
भीतर कुछ टूटने की आवाज़ सी आई...
ना सोच बची, ना समझ… और मैं होश खो बैठा।
जो नहीं कहना था, वो खुद-ब-खुद घट गया,
जो नहीं होना था, वो सब बिखरता चला गया।
और मैंने हमेशा के लिए खो दिया —
एक मासूम दोस्त,
अपने चरित्र पर विश्वास,
मानसिक और आत्मिक शांति,
वो छोटा सा अतिरिक्त काम… जो मेरे होने की वजह था,
जिससे मैं अपने परिवार को अच्छे से सँभाल पा रहा था।
सब कुछ एक ही पल में बिखर सा गया।
खुद को ख़त्म करने का मन में विचार आने लगा।
मन उलझा था — कहाँ जाऊँ, किससे कहूँ?
किस पर भरोसा करूँ, किस से डरूँ,
सवाल बहुत थे, पर उत्तर कहीं नहीं,
हर चेहरा था जाना-पहचाना, फिर भी कोई अपना नहीं।
उस दोस्त की नजरों में गिरना... जैसे मुझे भीतर से मिटा गया,
खुद को बुरा, गंदा और एक गलत इंसान समझने लगा था,
पास के मंदिर में जाकर माफ़ी माँगने लगा था —
शायद मुझसे ही कोई बहुत बड़ी भूल हुई होगी,
तभी इतना सब कुछ टूटकर मेरे हिस्से आया।
ना जाने क्यों... कुछ दोस्तों की बातों से,
या उन सोशल मीडिया की रील्स से,
बार-बार बनारस का नाम मन में गूंजने लगा,
जैसे कोई भीतर से चुपचाप मुझे खींचने लगा।
कुछ ही दिन हुए थे पहली बार अयोध्या से लौटे हुए,
पर ये खिंचाव कुछ और था —
जैसे आत्मा खुद को खोजने निकली हो।
कहीं कोई भीतर ही कह रहा था —
"चल, वहाँ तेरे सवालों के जवाब मिलेंगे,
शिव की नज़रों में — तू खुद को फिर से पाएगा।"
और फिर जब पहली बार बनारस आया,
बाबा को अपना सही-गलत सब बताया।
जब शब्द थक गए और आँसू चुप हो गए,
तब बनारस ने धीरे से समझाया —
कि हर अंत दरअसल एक नये आरंभ का निमंत्रण है।
कि साज़िशें भी शिव की इच्छा का हिस्सा हो सकती हैं।
कि चुप रहकर भी बहुत कुछ सुना और कहा जा सकता है।
कि जब प्रेम सच्चा और गहरा होता है, तो शब्दों की ज़रूरत नहीं होती।
कि जब तुम थक जाते हो दुनिया से, बनारस तुम्हारा इंतज़ार कर रहा होता है।
कि गंगा सिर्फ़ बहती नहीं, वो हर बहाव में कुछ धोती भी है — मन, भ्रम, और थकान।
कि घाट की सीढ़ियाँ, आरती, और चाय — तीनों सोच को धीमा और दिल को हल्का कर ठहराव देती हैं।
मंदिर का शिवमय प्रांगण जैसे समझा रहा था :
कि शिव अपने माथे पर चंदन की तरह केवल ठंडक नहीं रखते,
वो उसे भी रखते हैं — जो तपकर भी शीतल बना रहे।
और उनके पुत्र के मयूर की तरह —
जो गरिमा से चलता है, लेकिन ज़हर को भी नृत्य में बदल देता है।
मैंने अपने भीतर के चंदन को पहचानना शुरू किया,
और उस मयूर को भी —
जो मेरी आत्मा के रंगों को फिर से खोल रहा था।
अस्त-व्यस्त मन, दर्शन के बाद भीतर उठी वार्तालाप से धीरे-धीरे स्थिर होने लगता है।
और समझने लगता है कि —
वक़्त तय है... जगह तय है,
घटना तय है... और उसका घटित होना भी।
जो हो रहा है, उसे होने दो —
वो सब मेरी कहानी को पूरा कर रहा है।
जो कुछ भी हुआ, उसे अपने प्रारब्ध की तरह स्वीकार कर,
बस अपना कर्म ईमानदारी से करते चलो।
देव दीपावली की शाम,
जब दशाश्वमेध घाट दीयों से जगमगा रहा था —
लगा जैसे गंगा ने अपने आँचल में ब्रह्मांड समेट लिया हो।
उन दिनों एक अनजान सा चेहरा मिला था
कोई अपना सा, सरल मन का, सच्चे भावों वाला।
नाम था — रेवन्त।
हम दोनों ने घाट पर साथ नहाया,
गलियों में कचौरी सब्जी, टमाटर चाट, लस्सी, और मलइयो का स्वाद लिया,
नाव में बैठ, गंगा की लहरों पर तैरते हुए अस्सी घाट तक चले आए,
और हँसी में वो सब कुछ छुपाया जो मन में बोझ बन चुका था।
फिर एक दिन कालभैरव मंदिर पहुँचे —
जहाँ लगा कि भय और माफ़ी दोनों एक साथ मिल सकते हैं।
बनारस की इन गलियों, इन मंदिरों, और उस दोस्त ने
मुझे वो सुकून दिया — जो शायद कहीं और नहीं मिलता।
धीरे-धीरे...
जब मैंने सारी कड़ियों को जोड़ डाला —
हर बात, हर वो नाम, हर अनकहा संकेत,
जब बार-बार उन्हें मन में दोहराया...
तभी अचानक याद आया —
2018 में कुछ लोग मेरे घर आए थे हाल-चाल पूछने,
हॉस्पिटल से लौटे 16 दिनों के बाद।
वो मुलाक़ात अब किसी और ही कहानी की भूमिका लगती है।
बस, फिर सब साफ़ होने लगा —
कहानी क्या थी, किरदार नए ही नहीं, पुराने भी थे।
कौन पर्दे के पीछे था, और कौन सामने की कठपुतलियाँ।
ऐसा जाल — जिसकी बुनाई को मैंने देर से पहचाना,
मगर अब पूरी तरह समझ लिया है।
जिसने जो किया,
उसने अपने हिस्से का कर्म लिखा —
और मैंने भी, अपने हिस्से का दुःख जी लिया।
शायद ये सब मेरे कुछ अधूरे प्रारब्ध रहे होंगे,
जिनका काटा जाना ज़रूरी था,
तभी तो बाबा ने न सिर्फ़ होने दिया,
बल्कि मुझे देखने और समझने की शक्ति भी दी।
फिर मैं…
अपने सारे प्रश्न, शिकायतें, ग़लती,
पछतावे, दर्द और थकान को
अपने शिव के चरणों में रखकर,
एक नए रास्ते की ओर बढ़ चला।”
अब मैं फिर से खुद को गढ़ रहा हूँ —
हर अनुभव को स्वीकारते हुए,
धैर्य से, उन आँसुओं के साथ जो अब धीरे-धीरे दवा बनते जा रहे हैं,
और उस विश्वास के साथ जो अब भीतर के शिव से जुड़ गया है।
जैसे शिव अपने ललाट पर चंदन सजाते हैं —
शीतल, लेकिन तपे हुए।
और जैसे मयूर अपने पंखों में आकाश समेटे
हर आघात को एक नृत्य में बदल देता है।
शायद अब मैं भी —
अपने भीतर की शांति और साहस को महसूस करने लगा हूँ,
जो नर्म भी है, और निडर भी —
जैसे कोई तपकर भी ठहरा हुआ, और विष पीकर भी मुस्कराता हुआ।
अब ये समझ आ गया है —
कि जो जोड़ता है, वो हमें संजोता भी है।
और जो तोड़ता है, वो सिर्फ़ दर्द नहीं देता — सबक भी छोड़ जाता है।
अब मुझे किसी से बदला नहीं चाहिए,
क्योंकि मैंने खुद से ही समझौता कर लिया है।
बस बदलाव की उतनी रोशनी चाहिए,
जिसमें मैं खुद को हर दिन थोड़ा और बेहतर देख सकूं।
अब शिकायतों की जगह नहीं बची —
अब बस इतनी ख्वाहिश है,
कि जो शांति बाहर दिखती है,
वो भीतर भी महसूस हो।