Bhor – Delhi Poetry Slam

Bhor

By Shweta Mishra

भोर

 शाम भी क्यों उसकी 
 भोर तलाश रही है
 शिरा शेष दीपक की 
 लौ का हो चला है

ढह चुकी इमारत की
सांस क्यों चल रही है?

उम्मीद सी बची है
भोर हो थी जिसमें
इमारत बन रही थी
इक और भोर होगी
""खंडहर ना  रहूंगी 
मकान फिर बनूंगी""|

इक हाथ की है दूरी
पत्थर और हौसले में 
दूरी वो खत्म होगी
हौसला फिर जगेगा
भवन ये फिर बनेगा

सुनकर मेरी कहानी
कई और भोर होंगे
कई और मकान बनेंगे|

मुझे है भरोसा 
तेरे हौसले पे
रुक गया है तू 
 फिर शुरू करेगा

मेरी इक भोर सुनहरी
तू मुझपर करम करेगा

श्वेता मिश्रा


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