न जाने कब वह बड़ी हो गई – Delhi Poetry Slam

न जाने कब वह बड़ी हो गई

By Bhavya Singh 

न जाने कब वह इतनी बड़ी हो गई
बिन सोचे-समझे बोलने वाली नन्ही-सी गुड़िया,
कब इतनी समझदार हो गई...
छोटी-सी चोट पर घर सिर पर उठाने वाली बिटिया,
कब चादर में छुपकर सिसकने लगी-
ना जाने कब वह बड़ी हो गई।

गुड्डे-गुड़िया के खेल से ज़िंदगी की तुलना करने वाली नाज़ुक-सी बच्ची,
कब ज़िंदगी की कसौटियों से लड़ने लगी?
बिन मां के ना सोने वाली लड़की,
कब अंधेरों से गुजरने लगी-
ना जाने कब वह बड़ी हो गई।

पहली बार जिसे गोद में लिया हो,
उंगली पकड़कर चलना सिखाया हो,
कब वह हाथ छुड़ाकर दौड़ने लगी?
झूठ-मूठ का रोकर मां-बाप का प्यार लूटने वाली,
कब मुस्कुराहट में अपने आँसुओं को छुपाने लगी-
ना जाने कब वह बड़ी हो गई।

गुड़ियों के खेल में रिश्ते जोड़ने वाली यह परी,
कब उलझे रिश्ते संभालने लगी?
हमारी यह छोटी-सी बिटिया,
कब माँ जो बन गई-
न जाने कब वह इतनी बड़ी हो गई।


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