By Rakhi Sameer

चल पड़े हैं बेपरवाह, मंज़िलों की फिक्र नहीं,
कंधे पे हवा का हाथ है, और राह कोई दिखती नहीं।
ना कोई शिकवा, ना कोई डर,
रातें हैं दोस्त, चाँद है हमसफ़र।
ख़्वाबों का बोझ उतार आए,
अब बस आवारगी ही प्यार आए।
चाय के अनगिनत प्यालों में,
किसी पुरानी बात की झलक है।
कुछ दर्द हैं जेब में रखे हुए,
और कुछ हँसीं चेहरे पे नक़ाब की तरह चिपक है।
जो खोया, वो याद नहीं,
जो पाया, उसका नाम नहीं।
बस चलते रहना आदत बन गई,
ज़िंदगी अब कोई मुक़ाम नहीं।
हर मोड़ पे रुकना नहीं सीखा,
हर रिश्ते को बाँधना नहीं सीखा।
दिल आज़ाद, फितरत बाग़ी,
नाम है मेरा — आवारगी।