मैं अपनी ही सोच से बाहर हूं मैं। – Delhi Poetry Slam

मैं अपनी ही सोच से बाहर हूं मैं।

By Atharv Arya

मैं अपनी ही सोच से बाहर हूं मैं।
किसी के लिए उपहार नहीं, बल्कि किसी पर भार हूँ मैं।

यदि तुम मुझे ध्यान से देखो, तो जान पाओगे — एक अनोखा विचार हूँ मैं,
और यदि न मानो, तो तुम्हारे लिए एक अत्याचार हूँ मैं।

जैसे किसी शाखा से गिरा सूखा पत्ता — वैसा लाचार हूँ मैं,
पर यदि दृष्टिकोण बदलो, तो एक फूल की तरह स्नेह और प्यार हूँ मैं।

मुझे देखो तो मैं सबके लिए मज़ाक, पर अंदर से बेकरार हूँ मैं,
हँसते चेहरों के पीछे रोता संसार हूँ मैं।

मुझे पढ़ो, समझो — तो एक गहन परविचार हूँ मैं,
और यदि न जानो, तो एक टूटे शीशे से भी गया-बीता बेकार हूँ मैं।

तन्हाई में डूबा हुआ एक बीता सा त्योहार हूँ मैं,
किसी की जिंदगी में अनमोल नहीं सबकी जिंदगी में एक आम सा किरदार हूं मैं।

मैं अपनी ही सोच से बाहर हूं मैं।
किसी के लिए उपहार नहीं, बल्कि किसी पर भार हूँ मैं।


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