By Ashish Dwivedi
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प्रकृति की बनाई सबसे नायब चीजों में शुमार हो तुम,
उन नायब चीज़ों में सबसे आगे बेशुमार हो तुम।
जबसे देखा है तुमको,
बस तुम्हारे बारे में यही सोचा है कि
तुम्हारी हंसी ऐसी जैसे
बंजर ज़मीन पर हरियाली हो जाए।
तुम्हारी आँखों में तेज़ ऐसा जैसे
चाँद-सितारों की चमक हो तुमने चुराई।
तुम्हारे केश ऐसे जैसे कि
विशाल वन की उज्ज्वल घटाएं,
जिसमें फिरता मैं एक गुमराही,
मंज़िल की परवाह किए बिना उस घने वन में
भटकता मैं एक गुमराही।
तुम्हारी सुराहीदार गर्दन के तो क्या ही कहने,
जिसमें सज के फूल भी लगने लगते हैं गहने।
लबों का तो पता नहीं मुझे,
पर उन लबों से निकले लफ्ज़ मेरे दिल को सुकून दे जाते हैं,
और वह साधारण से शब्द भी मुझे प्रेमरस की कविता याद दिलाते हैं।
प्रेमरस में खो कर जगजीत साहब मेरे अंदर गुनगुनाते हैं,
और अपनी ग़ज़ल का मतलब मुझको समझाते हैं।
और अगर यह सुनके तुम मुझे शायर समझो,
तो मेरी सबसे अच्छी ग़ज़ल तो तुम ही हो।
क्योंकि तुम्हारी हर बात निराली सी,
और क्या कहूं यार, तुम्हारे व्याख्यान में तो मेरे सारे शब्द कम हैं।
और फिर मैं तो,
सीरत से लेकर सूरत तक हर वाक्य में तुम्हारी रीत कह चुका हूँ।
इन शब्दों को पिरो दूँ अगर किसी धुन में,
तो तुम्हारे ऊपर एक गीत कह चुका हूँ।
और आखिर में,
मैं अपने दिल की बंजर भूमि में
हरियाली का इंतज़ार करता।
मैं उसकी आँखों की चमक ढूंढ़ता हुआ
चाँद में, रोशनी में, चांदनी में,
बस चकोर की तरह चांदनी की ओर एकटक देखता हुआ।
फूल में, कभी शील में,
विशाल वनों में, तो कभी वीरान वनों में,
जलमयी झरनों में, तो कभी निर्जल झरनों में।
बस इसी उम्मीद में कि तुम कहीं तो मिलो,
तुम्हारा अनन्तकाल तक इंतज़ार करता हुआ।
मैं तुम्हारा
कृष्ण ग्वाला सा,
और तुम मेरी राधा रानी सी।