मैं कौन हूँ? – Delhi Poetry Slam

मैं कौन हूँ?

By Ashish Changavalli

मैं कौन हूँ? एक सवाल, या एक मिसाल हूँ?
वुजूद का धुंधला सा अक्स, या किसी और की मिसाल हूँ?
जो अपनी ज़ात बेच आए, क्या वही समझदार कहलाए?
क्या बे-ज़मीर लोगों के लिए ही तालियों के जश्न सजाए जाएं?

क्या झुकना लाज़मी है सिर्फ़ ताक़त के साये में रहने को?
क्या सच बस लफ़्ज़ है, या हक़ में एक जादू है जीने को?
क्या इज़्ज़त सिर्फ़ कुर्सी से बाँधी जा सकती है?
क्या काबिलियत चापलूसी के सिक्के में तोल दी जाती है?

जो मेहनत करे, वो क्यों पीछे रह जाए हर दफ़ा?
और जो बस हाँ में हाँ मिलाए, वो सफ़र में सबसे आगे निकले दफ़ा-दफ़ा?
क्या दफ़्तरों के कोने में कभी मेरिट का दाम तुलता है?
या हर रोज़ एक चमचा नए मसखरे का किरदार बनता है?

जो जलन है दिल में, क्या वो सिर्फ़ मेरी हार का गिला है?
या एक झलक है उस इंसान की जो सिस्टम से पूछता है – क्यों ये सब एक सिला है?
मैं दिखावा हूँ या एक खुद-सोचता उजाला?
एक रौशनी जो अंधेरों से लड़ता है, बिना नाम के, बेहाल सा पला?

क्या सच कहना अब तमाशा बन गया है?
और झूठ... एक रंगमंच का सुपरस्टार बन गया है?
क्या पैसा ही परम् सत्य है, और इंसानियत सिर्फ़ एक रिवायत?
जिसने ईमान बेचा, वो चतुर; जिसके पास ईमान है, वो रुसवा सा ज़ात?

क्या ईमानदार रहना अब बेवक़ूफ़ी की मिसाल है?
और सच्चाई – एक गुमनाम जज़्बा, जिसका सबने गला घोंट दिया हाल है?
क्या छोटी सोच नहीं, गहरी सोच माइनॉरिटी बन चुकी है?
और हर सोचने वाला, तन्हाई के वीराने में घूमता एक प्यासा सा टुकड़ा है?

जो अंधभक्ति से इनकार करे, वो अब राज-द्रोही कहलाता है;
सवाल उठाना एक जुर्म है, सच बोलना तूफ़ान लाता है।
लोग कौन हैं? कल अल्लाह के साथ, आज राम के, परसों किसी नए इमाम के साथ—
क्या जन्नत भी मार्केटिंग का एक वाउचर बन चुकी है,
या फिर सब कुछ एक धोखा है, एक राज़ की राख में छुपी बात?

क्या हम सिर्फ़ अपने सुकून की तलाश में आए थे यहाँ मर जाने?
या अगले नस्लों के लिए सच के बीज छोड़ जाने?
क्या मौत पर रूह को कोई जवाब मिलता है?
या सब सवाल एक खाली किताब के पन्ने बन जाते हैं—बिन क़लम, बिन हिसाब?

क्या बदलाव सिर्फ़ चेहरों की नक्काशियों में होता है?
या असली इंक़लाब नीयत की मिट्टी में, ज़ेहन के पैग़ाम में सोता है?
क्या नेकी भी अब एक "पर्सनल चॉइस" बन चुकी है?
और इंसाफ़... एक सोशल मीडिया के रील का वायरल वॉइस बन चुकी है?

तो जिन पर फ़ख्र करते हो, क्या वो असल में तुम्हारी सज़ा तो नहीं?
जो कुछ मिल गया, क्या उसमें कोई खो गया तो नहीं?
ये जीत नहीं लगती... एक नए चक्रव्यूह का धोखा है,
और ज़िंदगी?
ज़िंदगी बस एक लम्हा नहीं — एक ला-मकानी में खिंचती ज़िंदा रहने की सज़ा है।

 


Leave a comment