हार गयी ज़िंदगी!! – Delhi Poetry Slam

हार गयी ज़िंदगी!!

By Archana Kumari

साँसों ने ज़िंदगी का साथ छोड़ दिया ,दर्द ने उसके आत्मविश्वास को झकझोर दिय।,

अपनी हर सांस से लड़कर आगे बढ़ी वो ज़िंदगी,

पर दरिंदगी के निशाने पे ,हार गयी ज़िंदगी!!



हरपल इन्साफ का बेसब्री से इंतज़ार किया, हर मशीन की चुभन को हिम्मत से स्वीकार किया,

जीना तोः शुरू ही किया था उसके बचपने ने, तरस न आया उन दरिंदो को, जो उसके साथ इतना अत्याचार किया



अरे रावण का पुतला जला कर क्या साबित करते हैं, उससे कहीं ज़्यादा हैवान, देश में खुले आम घुमा करते हैं,

हर गली मोहल्ले में, कुत्ते सी ताक लगाए, हर आने वाली लड़की को अपना शिकार समझते हैं,



कभी लगता है, भगवान कहां हैं, जिन्हें हम इतने मन से पूजते हैं, लोग कहते हैं, हर ज़र्रे, हर शरीर में जो बसते हैं,

तोह कहां गए उन दरिंदों के अंदर बसे भगवान, कि woh ऐसे भव्य दुष्कर्म करने से भी नहीं डरते हैं!!



हर ढलती हुई शाम के साथ, वो अँधेरा साया डराता है, हर आदमी वहाँ लुटेरा या दरिंदा सं अजार आता है,

कब कौन सा पल, सांसों को ज़ंजीर से जकड़ दे, हर गुज़रता लम्हा जैसे , उस लड़की की मजबूरियाँ याद दिलाता है,





लगता है जैसे बस अब इस कलियुग का अंत हो जाए, दुनिया ख़त्म होने के सारे अफ़वाह सच हो जाए,

अगर दे नहीं सकते जिंदगी देने वाले को ही जिंदगी,'तोह ऐसी बेलाक्ष्य फैली सारी सृष्टि, बस विनाश के अधीन हो जाए।



युगों युगांतर से चली आ रही औरत के अपमान की गाथा,

अग्नि परीक्षा पार कर भी मिला उसे दुत्कार, जो थी श्रीराम की ब्याहता,

कृष्णा के द्वापर में तोह हर धर्म सीमा का हुआ उल्लंघन,द्रौपदी को पांच हिस्सों में बांटा, फिर उसकी अस्मिता का हुआ चीर हनन!!



कलियुग में तोह हर पल एक नयी निर्भया और अभया जन्म लेती है,

बराबरी के भ्रम में पढ़कर जब अपनी सोच, काबिलियत और आज़ादी को चुनती है,



लड़की १ महीने की बच्ची हो या १०० साल की बूढी,

शॉर्ट्स में खुली घूमे या साड़ी, बुरखे में ढकी हो औरत,

काबिलियत भरी डॉक्टर बिटिया हो या पागलखाने में भर्ती दिमागी बीमार,

दिन का उजाला हो या रात का अन्धकार ,

कुछ नहीं रोक पाता, इन हैवानों की रफ़्तार,

फिर अगले पल ये खुले आम करते मानवता को शर्मसार !!.



नहीं बनना हमें देवी स्वरुप, मत कहो हमें शक्ति का रूप,

बस एक युग और बना दो , जिसे हम कह पाए स्त्री युग ,

हमें अबला सबला देवी शक्ति कोई विशेष पहचान नहीं चाहिए ,

बस इस इंसानी ज़िंदगी में इंसानों सा सम्मान चाहिए,





क्या इसी डर के साये में, चलती रहेगी जिंदगी,

क्या ऐसे ही करोड़ों अभया और निर्भया हर दिन बलि की वेदी चढ़ती रहेंगी,

इनकी जलती चिता से, क्या कोई नई आग भी भड़केगी,

क्या बदलाव आएगा कभी, या फिर हार जाएगी जिंदगी!!


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