By Aradhana Arya
चाह नहीं रानी बन हुकुम चलाऊँ।
चाह नहीं देवी बन पूजी जाऊँ।
चाह नहीं बेटी बन पराये घर की कहलाऊँ।
चाह नहीं बहन बन अतिसंरक्षण पाऊँ।
चाह नहीं बहू बन सबकी टहल बजाऊँ।
चाह नहीं पत्नी बन दासी बन जाऊँ।
चाह नहीं ससुराल के बंधन में बाँधी जाऊँ।
चाह नहीं मायके में बियाहने भर पाली जाऊँ।
चाह है इतनी बस,
वैयक्तिक रूप में जानी जाऊँ।
चाह है इतनी बस,
समानता का अधिकार पाऊँ।
चाह है इतनी बस, रानी देवी नहीं मात्र स्त्री कहलाऊँ।
चाह है इतनी बस, घर की ज्योति बन जाऊँ।
चाह है इतनी बस, बराबरी का अस्तित्व पाऊँ।
चाह है इतनी बस, घर की सम-सदस्य बन जाऊँ।
चाह है इतनी बस, अर्धांगिनी बन आधा अंग हो जाऊँ।
चाह है इतनी बस, ससुराल स्वतंत्र घर हो जाएँ।
चाह है इतनी बस, मायके में आजीवन रह पाऊँ।
चाह है इतनी बस, ससुराल-मायका नहीं केवल घर कहलाएँ।