मानवता – Delhi Poetry Slam

मानवता

By Anurag Kumar Srivastava 

कैसा होता जब,
मैं नहीं होता, जो मैं हूँ ।
मेरे सभी अपने,
अपने नहीं होते।
मेरे घर का मुंह, 
जो पूरब में है,
पश्चिम में होता।
मेरा देश, पराया होता और
मैं सीमा पार से बेधता
प्राणों से प्रिय इस धरती को।
उतार रहा होता गोलियां,
आज के अपनों पर।
देश भक्ति का नशा जो,
होता मुझ पर।
ऐसी कल्पना आज मुझे
बेहद व्यथित कर जाती है,
शायद सीमा के साथ मानवता
भी बंट जाती हैं।


3 comments

  • इस कविता को प्रदर्शित करने के लिए आभार।

    Anurag Srivastava
  • सुंदर भाव भाषा अप्रतिम

    Kamlesh Gupta
  • अद्भुत , ऐसा सोचना भी कल्पना से परे है ,

    Kiran Kalway

Leave a comment