By Anuradha Govil Kulkarni

हरी भरी छरहरी
सरसरी सनसनी सुनहरी
जो मुसमूसी रुई सी
कमरे में धूप सी
घुसी फिर निकल गई
इक पकड़
जो छूट गई
फूट फूट झरने सी जो लोटती थी
अब लुट गई
सुप्त गुप्त लुप्त हुई
मिट गई
सूँई की आँख में
रेशम के तार सी
वो पिर गई
वो मेरी तेरी
प्यारी सी
दुलारी सी
भर्राई सी वो भर गई
झुक गई
वो डाल सी
फूल की फुहार सी
पंखुड़ी वो
खिल के फिर बिखर गई
धूल सी उड़ गई
वो धुंधली एक याद सी
गीली नमी वो बूँद सी
टपक गई
वो मिल गई
वो घुल गई
चाकू की धार थी
वो सब्ज़ियों सी
कट गई
बूढ़ी आँख की वह रोशनी
ज़र्रा ज़र्रा
बिखर गई
यही कही
भिंची भिंची
वो पिस गई
धान के निधान सी
वो खप गई
बरस गई
धीमी धीमी
धार सी
रिस गई
वो घिस गई
रस्सी या
तार सी
वो खिच गई
मेरी तेरी
प्यारी सी
दुलारी सी
मलाई सी फिसल गई
दूध सी सफ़ेद थी
वो खोट से यूँ भर गई
बह गई
डूबने से मगर
वो बच गई
अब फैल के वह सो रही
छरहरी भरभरी
भर्राई सी
तर्जनी सी हाथ की
वो कील सी गड़ गई
अब उसे इधर उधर की फ़िक्र नहीं
सुधर गई
बिगड़ गई
वो ज़िक्र से
मलाल से
गुलाल सी
वो लाल सी
अब रच गई
मख़मली रूमाल सी
वो हर जगह जो बिछ गई
फूल से अस्तित्व की
ख़ुशबू वह बहार की
अब हर जगह
फैलती
वो इश्क़ की शर्म सी
लालिमा वो गाल पे
कभी जो दिख गई
या छुप गई
तेरी
मेरी
प्यारी सी
दुलारी सी
वो घूमती
घुमक्कड़ धरा सी
सिंची-सिंची ज़मीन सी
यूँ अब उपज गई
गुलाब के वो
फूल सी
वो फूलों सी थी
जो फूल सी ही चढ़ गई ।।
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One of the most beautiful pieces!!