By Anu Radha

वहशत की कलम से लिख दिया।
फिर नाम किसी का मिट गया।
सरकारों की मनमानी पर,
जाने किस किस का घर मिट गया।
सियासी खेल में सब मिट गया।
लाल रंग का चूढ़ा चटक गया।
माथे का सिंदूर हां मिट गया।।
वहशत की सरगर्मी में,
जाने कितनूं का घर लुट गया।।
धर्म का बंटवारा कौन कर गया।
बहनों को कौन बेवा कर गया।
जन्नत की धरा को कौन भला ।
दोज़ख के हवाले कर गया।।
है भूल यह कि
वह फिर यहां लाचार हो गया।
मांओं को बिलकता छोड़ गया ।।
हरेक गोली पर अपनी,
वो इक ज़िम्मेदारी छोड़ गया।।
हां उत्तर देना छोड़ गया ।
राह बदलना भूल गया।
बच्चों के दिल को तोड़ गया।
जाने कितने रोते चेहरों पे
डर का वो मंज़र छोड़ गया।।
बस इतना कसूर किया था।
हां हिन्दु हूं मैं बोल गया ।।
शेतानों की इस दुनिया में।
इन्सान हूं कहना भूल गया।
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