लेखक-बाबू – Delhi Poetry Slam

लेखक-बाबू

By अंश ठाकुर

 

 

कमरे का दरवाज़ा जब खुला, 
तो लेखक-बाबू की लाश देख मैं सन्न रह गया। 
बहुत अतरंगी ढंग ढूंढा था उन्होंने जाने का, 
आखिर लेखक जो ठहरे, 
क़लम से अपनी नस काट दी थी।

खबर शहर भर में फैल गई थी, 
और खबर से ज़्यादा तेज़ी से फैल रही थी अफवाहें, परिकल्पनाएँ, और एक प्रश्न, 
कि आखिर लेखक-बाबू ने ऐसा क्यूँ किया? 

कुछ ने कहा कि पक्का बाबू की नील-स्याही खत्म हो गई होगी, 
तो बेचारे लाल-स्याही की खोज में नादानी कर बैठे। 
और कुछ ने कहा कि ज़रूर बाबू के पन्ने खत्म हो गए होगे, 
तो उन्होंने अपने ख्यालो को अपनी कलाई पर लिखना शुरू कर दिया होगा, 
और ख्याल कुछ ज़्यादा ही गहरे होने के कारण चमड़ी तक भेद गए। 

सब सोचते रहे, 
परन्तु कमरे में जाना तो दूर, 
उसमें झांकने तक की चेष्ठा किसी ने न की। 
अगर कोई करता तो वह जान जाता 
कि लेखक-बाबू के पास न तो स्याही की कमी थी, 
और न ही पन्नो की।

कमी थी तो बस पढ़ने वालो की।


Leave a comment