बचपन – Delhi Poetry Slam

बचपन

By Annapurna Jha

गुब्बारों से खेलने की उम्र में, गुब्बारे बेचता है
सूनी आंखों से कभी ज़मीं, तो कभी आसमां देखता है।

१)

सिग्नल पर गुब्बारे बिकते,
मासूमों के चेहरे दिखते।
ये चेहरे कितने डरे हुए,
ग़म की आहों से भरे हुए।
दर-दर की ठोकर सहते हैं,
आंखों से दरिया बहते हैं।
टूटा जो दिल का हर सपना,
लगता है साहस भी टूट गया,
बचपन तो पीछे छूट गया।

२)

घर में एक चूल्हा ठंडा है,
पेट की आग भी धधक रही।
तभी तो मुरझाया चेहरा,
आंखें भूख से चमक रही।
लो, सपने बेच रहा बचपन,
कोई अपनी खुशी खरीद रहा।
इस लेन-देन के चक्कर में,
उसका हर सपना रूठ गया,
बचपन तो पीछे छूट गया।

३)

इक गठरी थी अरमानों की,
जो ये बाज़ार में लाया था।
जब पास न देखा अपनों को,
दिल ज़ोरों से घबराया था।
पर भूख में ऐसी ताक़त है,
जो करती है मजबूर बहुत।
इस शोर-शराबे, भगदड़ में,
कोई आस की गठरी लूट गया,
बचपन तो पीछे छूट गया।

४)

अब पैरों में बस छाला है,
अंतर्मन में इक ज्वाला है।
खुशियों की हवा जो निकल गई,
वो गुब्बारों में डाला है।
कोई तो ले लो गुब्बारे,
और दे दो इनको आस नई।
अब दिल के घाव भी रिसते हैं,
और पांव का छाला फूट गया,
बचपन तो पीछे छूट गया।


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