निःस्वार्थ आहटें – Delhi Poetry Slam

निःस्वार्थ आहटें

By Ankur Tandon

हाँ साहब हाँ,
मैं इंसान नहीं मज़दूर हूँ,
हालातों से मजबूर हूँ।

हाथ में बच्चे,
सिर पर समान,
नंगी धरती,
खुला आसमान,
क्या कहूँ,
नंगे पाव चलने को मजबूर हूँ।
हाँ साहब हाँ,
मैं इंसान नहीं मज़दूर हूँ।

दब गए, कुचल गए,
हर हाल में चल गए,
अपना क़सूर बस इतना है,
कि ख़ुद के घर से दूर हूँ।
हाँ साहब हाँ,
मैं इंसान नहीं मज़दूर हूँ।

ना सर पर छाता,
ना खाने को दाना पानी,
भूख प्यास सब बेमानी,
ख़ुद तो भूखा रह लूँ,
पर बच्चों के लिए मजबूर हूँ।
हाँ साहब हाँ,
मैं इंसान नहीं मज़दूर हूँ।

तुम्हारा घर बनाने निकला था,
ख़ुद का घर उजाड़ के,
दो कौर की भूख थी,
अपनी क़िस्मत को सँवार के।

तुम सब पत्थर के निकले,
कौन सुने अपनी,
किसको कहे पुकार के।
फिर अपने ही हालातों से मजबूर हूँ।
हाँ साहब हाँ,
मैं इंसान नहीं मज़दूर हूँ


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