By Anju Bhutani
स्वार्थ की पराकाष्ठा लिखी गयी
कलयुग की लाल स्याही से।
शब्दों से टपकता लोलुपता का घी,
मन-मस्तिष्क को लीलती,
हृदय की संवेदना छीलती,
मन में शुष्कता भरती,
स्वार्थ की लालसा।
बहरी हो जाती भावनाएं,,
दोहरे चरित्र, दोहरे चेहरे,
जीभ करती बाते दोहरी,
कैसी दोहरी मानसिकता,
फलती फूलती खेती स्वार्थ की।
कैसे बुत कलयुग के तराशे,
कहो राम, कहो कृष्ण,
क्या कंस और भद्रा बनाते?
इंसानियत रहती तकती।
चेहरे के उजास को,
स्वार्थ के बादलों से ढकती,
मन की कालिमा।
स्वार्थ का स्यापा,
स्वार्थ के नाच,
काले रंग सी पसरती
स्वार्थ की अंतहीन गाथा।