पत्थर होती स्त्रियां – Delhi Poetry Slam

पत्थर होती स्त्रियां

By Anjali Vishok

सृजन कहीं उस दूर नीड़ का
बोधगम्य सा तथागत था
हल्की सी एक स्निग्ध किरण का
मुख यूं ही मुस्काता था
अपराजिता के फूलों सी वह नन्हीं परी
पाखों की चादर सी उजियारी थी
रजनी के इत्र को भी,
धूमिल सी वह महकाती थी
एक रोज, यूं ही, पापा की उंगली पकड़ चलना सीख जाती थी
ममता की छांव में तरकश का तीर भी हो जाती थी
कैसी ऋतु और कैसी तृष्णा
मोह के धागों में कैद संदूकों की कब्ज़ा वही गिराती थी
धूल के अंबार सी
इंद्रधनुष का मल्हार वो बनी
कभी वह खुद गलत हुई
और कभी किसी की नज़रें 
दंश यूं ही चिरजीवी और यथावत था
यौवन का विचरण, एक बार ही सही
मगर, हर स्त्री के लिए
आत्मसम्मान से त़ौमत तक का था
जहां सही और गलत 
सिर्फ सहस्त्र तारों की गणना करना था
ओझल होते प्रकाशवर्ष में
मनुष्यता से स्त्रीत्व की आक्षेपित उपाधि
संज्ञा और सर्वनाम का युद्ध यूं ही दर्शाती थी
किंचित रात्रि के श्वेत प्रकाश में
सहनशीलता की ऊष्मा का दीप्त होती, वह प्रौढ़ मुस्कान
भोर के शुक्र तारे की खोज
एक दफ़ा, न चाहकर भी जरूर कर जाती थी
छोटी सी खरोंच पर, न जानें कब
तूफान सी वो रहगुज़र करने वाली
खामोश मुस्कान से अब, कंटक भी 
समर्पण से काफिले में ठहराती थी
सच कहें तो
उद्दीपन का द्वैत रण
सिर्फ प्रेम का ही कुरुक्षेत्र था
निःस्वार्थ एवं अकारण,
लहू के रंग से मुक्त और अबाध 
यौवन सा चंचल
या बौद्धिकता सा निश्चल
प्रथमतः वह प्रथम प्रेम,
बावला ही रहा 
उम्र के किसी भी पड़ाव पर
बस जीवंत होना चाहता था
झील से मौन मगर,
उस अशिष्ट अल्हड़ बचपन सा
जो कहीं खो सा गया था 
या कुछ के लिए शायद कभी आया ही नहीं
जज़्बात सत्य, असत्य, टूटे जैसे भी थे
दम तोड़ गए
एक अडिग तरु की भांति
जड़ें फैली तो थीं 
पर सिर्फ गहरा होने के लिए
दोष तो था, बिखरे वक्त में 
उतावले उस मन का
जो शांत होना चाहता था उस न्यून समर सा
कभी श्रोता और कभी कथिक बनकर, बिना अपेक्षा, मगर,
अप्रत्याशित पतझड़ यूं ही देह का वसंत ले गया
अश्रु झरते ही रहे
बेबाक और मूक, हरसिंगार की तरह
वे कभी बुझे तो नहीं 
मगर, सीख गए समझौते का हुनर 
जिम्मेदारियों ने एक नया परिवार भी दिया
और कुछ नए चेहरे भी
जो कभी समझ नहीं पाए
एक निश्चल स्त्री के अंतर्द्वंद्व को
स्वावलंबी या निर्भर जैसी भी थी,
जीवन भर, कुटुंब और रिश्ते सजाती रही
जहां वह बस स्थायी होना चाहती थी
अपनी देह और अंतर्मन, दोनों के साथ
कभी-कभी थोड़ा सा पुरुषत्व भी लिए
अंततः, वह त्याग दी गई
सिर्फ अपने ही द्वारा
ताकि उसका स्त्रीत्व कभी शर्मिंदा न हो
महसूस करने से, बिखरने से, टूटने से और मोती से झरते उन आंसूओं से
पथिक सी थक गई थी, अनवरत दूरगामी ओझल होते लक्ष्य को
पहचान पाना बहुत ही आसान था 
इस रमणिक कलयुग में
जब लोग कहते हैं कि उनका दोष ही क्या था
मगर, हर उस अपने की उपेक्षा ने वध किया
उस कोमल मगर सहनशील देह के अस्तित्व का
इस अंत तक
कि प्रस्तर हो गई ऐसी स्त्रियां
जो अब प्रेम में यकीन नहीं रखतीं 
पहले जैसी ही हैं 
जो सोचती तो सबके लिए हैं
मगर, इस बात का बिल्कुल भी इल्म नहीं
कि उनके लिए कोई नहीं
कि वे सम्पूर्ण हैं, स्वयं के लिए, हर क्षण
गिरकर उठने को और
सिर्फ़ मनुष्यता पाने को
हर रोज़ छोटी-छोटी चीजों में 
चन्द आडंबरित पुरुषत्व के विशेषाधिकारों से अवमुक्त
सदैव, ऐसी स्त्रियां 
समर्पित तो थीं और हैं
मगर, अब उस अल्हड़ प्रेम के लिए नहीं
अपने दायित्वों के लिए
मुस्कुराती तो बहुत हैं
पत्थर होती वो वीरान कुछ स्त्रियां
जो एक कोमल पुरुष से मिल नहीं पातीं 
केवल प्रेम और सम्मान के लिए
और त्याग देती हैं अपना स्त्रीत्व 
अंततः,
घर बाख़ूब चलाती हैं
पत्थर होती वे स्त्रियां
जो अब काज़ल लगाने से कभी नहीं डरतीं
बस मौन हो जाती हैं
उस ढाई आखर से विरक्त 
आक्षेपित स्त्रीवाद के लिए
और वो भी,
एक नई स्त्री के सृजन को।


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