By Anish Kumar Adya

होठों के बीच, मस्तिष्क और कंठ के बीच
विचरता एक प्राणी विचित्र
इस की भी एक कहानी है
एक वजूद है इस का भी,कुछ अजीब
चटपटे चाट का करती स्वाद का अनुवाद
एक अलौकिक अनुभूति गुलाब जामुन में, इन के साथ
मिलते ही व्यंजन से, बता देती नमक का माप
काले खट्टे की रह जाती इन पर छाप
ट से ल और ड से ज, इन से ही हो पाता
ये न होती, तो शायद, ये कविता न लिख पाता
मेरे विचार, मेरी आवाज़ को देती ये रँग नया
प्रकृति के इस अचरज पर प्रतिदिन मैं सोचता
फिर समय बीता कुछ और, मैंने पाया
इन्हीं की वजह से मैं प्यार जता पाया
व्यवसाय में भी इनका प्रमुख योगदान
स्वरों, शब्दों के समक्ष मदमस्त, मैं झूमता रहा भांवरें समान
और एक दिन मैं इन की असली शक्ति समझ पाया
जब ज़ुबान के धनुष से मैंने शब्दों का बाण चलाया
अहंकार के वश में खूब विध्वंस हुआ
क्या मैं वही? ये ज़ुबान वही? एक पल के लिए, आभास हुआ
परन्तु क्रोध और अहम का कुछ ऐसा है स्वाद
कि इस नशे में न कुछ रहता याद
बस बाण पर बाण चलाता गया
और समय की कसौटी पर बुढ़ियाता गया
एक दिन बस रह गई सिर्फ़ ये ज़ुबान
ना मन, ना सोच, न शब्दों की उड़ान
अब अकेला ही, ख़ुद से बतियाता हूँ
कोशिश तो करता हूं,
पर ज़ुबान, तुम्हें नहीं समझ पाता हूँ l