By Amit Kumar Gupta
बूंदों को टपकते देख कर
कुछ और बूंदे चल पड़ी।
रोकने की चाह थी,
पर और भी वह बह चली।
न रोक सका, न रुक ही सकी,
बहती ही गयी, कहती ये गयी —
मत रोको मुझे तुम आज,
आज बह जाने दो,
इस दुःख के काले से,
थोड़े दुःख को तो उड़ जाने दो।
ये बदल वर्षा करके नम कर देंगे बंजर धरती को,
न सही हजारों, एक सही भीगेगा तो भीगेगा।
उन हजारों की गिनती न कल ही हुई थी,
न आज ही होगी।
बस भीगने वाला ही उनके स्पर्श सुख को जानेगा।
एक दो अश्रु बूंदें आ जाएँगी कपोलों पर उसके भी,
एक महात्मा की याद में वो भी रोएगा,
एक महात्मा की याद में वो भी रो लेगा।
Nice🙂
Thought provoking