बसेरा – Delhi Poetry Slam

बसेरा

Alpana Srivastava

घर में हम बसते हैं या हममें घर बसता है?
 दिल और दिमाग के फेर में समय कटता है
 ईंट-पत्थर का घर जिसमें खुशबू भर दी हमने अपनी,
 हर कोने में रख दी यादों की टोकरी अपनी
 पर देखो तो,
 इस घर के भीतर भी एक घर रहता है,
 जिसमें हर पल मैं रहता हूँ
 श्वासों के तार पर, हृदय की वीणा पर,
 जीवन का मृदु और कटु संगीत सुनता हूँ
 मेरे जीवन को साधे, बोध-विवेक को बाँधे,
 यह घर,
 चलते-बैठते कितने भीतर तक मेरे रहता है
 कितना मुश्किल है जानना कि
 मैं इसके भीतर रहता हूँ या यह मेरे भीतर रहता है
 है कठिन स्वयं को अभिन्न रखना,
 अपने को अपनी पहचान से भिन्न देखना,
 घर को घर ही देखना,
 और जाते हुए मोह न रखना


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