By Khushi Singh
रात में केवल सच्चाई जीती है...
वही सच्चाई जो दिन की रौशनी से डरती है।
डरती है उन हवाओं से,
कि कहीं वो उसे अपने संग न उड़ा ले जाएँ।
डरती है उस उजाले से,
जो उसे परखने की कोशिश करता है।
इसलिए...
वो सच्चाई रात को अपना घर बना लेती है।
उसे अंधेरे से डर नहीं लगता,
उसे डर तो था उजालों से।
रातों में उसे आज़ादी मिलती है,
क्योंकि रात के सन्नाटे कुछ कह जाते हैं।
कभी चुपचाप हौसला दे जाते हैं,
तो कभी बिना आवाज़ के रो लेने की इजाज़त दे जाते हैं।
ये सन्नाटे बहुत कुछ कहते हैं...
पर फिर, दिन हो जाता है।
हमारे जज़्बात धूप की किरनों में कहीं खो जाते हैं।
और एक बार फिर… सच्चाई हार जाती है,
क्योंकि फिर से उसे डर लगने लगता है।
जिसने रात को अपना घर बनाया,
वही दिन के उजाले में खो गया।
जिसने जज़्बातों को आँसुओं में पिरोया,
वो सुबह होते ही कहीं ग़ायब हो गया।
जिसने रात को ज़िंदगी से हार मान ली थी,
वही सुबह ज़िंदगी की जंग लड़ने निकल पड़ा।
रातों में देखे गए सपने,
सुबह की भागदौड़ में गुम हो गए।
जिन यादों पर रात भर आँसू बहाए गए,
उन्हें भी धूप ने चुपचाप सुखा दिया।
रात... बस रात होती है,
दिन... बस दिन।
रातों में जज़्बात बहते हैं,
जो दिन के उजालों में कहीं छुप जाते हैं।
रात में एक सुकून सा कोना होता है,
जहाँ सिर्फ चाँदनी नहीं,
बल्कि लाखों अल्फ़ाज़ अंधेरे के किसी कोने में साँस लेते हैं।
ये रात बहुत कुछ कहती है जनाब,
पर हम उसे सुनते ही नहीं...
और फिर दिन के उजालों में
अपना सारा अंधेरा... छुपा लेते हैं।