स्याही में छुपा इंसान – Delhi Poetry Slam

स्याही में छुपा इंसान

By Ajinkya Kishore

मैं क्यों लिखता हूँ
जब हर सुबह सवालों की गर्द में आंखें खुलती हैं,
और रातें जवाबों की चुप्पी में डूब जाती हैं,
जब सोच बिखर जाती है पर पन्ना फिर भी भीगता है,
और अंदर कोई हारा-सा इंसान धीरे-धीरे चीखता है।
लिखता हूँ, क्योंकि चुप रहूँ तो दम घुटता है —
और स्याही ही है जो ज़िंदा रखती है।

मैं क्यों लिखता हूँ
जब जेबें ख़ाली हों और हौसले भी उधार में हों,
जब हुनर की कीमत कम और दिखावे का व्यापार हो,
जब मेहनत की जगह जुगाड़ की जय हो,
और ग़रीबी को ‘निकम्मापन’ कहकर टाला जाए।
लिखता हूँ क्योंकि ये कलम मुझे गवाही देती है —
कि मैं ज़िंदा हूँ, और जला नहीं हूँ।

मैं क्यों लिखता हूँ
जब सपने नौकरी की शर्त पर तौल दिए जाएं,
और जुनून को पागलपन का नाम दे दिया जाए,
जब रिश्ते भी सफलता के आधार पर हों,
और सच बोलना भी गुनाह लगे।
लिखता हूँ क्योंकि झूठ में ढलने से बेहतर है
अकेले सच में जलना।

मैं क्यों लिखता हूँ
क्योंकि मेरी आवाज़ का कोई मोल नहीं,
पर उसकी गूंज कहीं किसी को हिम्मत देती है।
क्योंकि मैं टूटा हूँ, थका हूँ, हारा हूँ —
पर अब भी लड़ने को तैयार हूँ।
लिखता हूँ, क्योंकि मैं जानता हूँ, ये रास्ता आसान नहीं,
इसी लिए लिखता हूँ।

मैं क्यों लिखता हूँ
जब हर शब्द पर सवाल उठते हैं — ""क्या ये तुम्हारा लिखा है?""
और प्रशंसा से ज़्यादा अविश्वास की नज़रें मिलती हैं।
जब भीतर ही भीतर खुद से पूछता हूँ — ""क्या वाक़ई कुछ कह पाया हूँ?""
और हर रचना के बाद एक गहरा खालीपन उभर आता है।
लिखता हूँ क्योंकि ये खालीपन ही मेरी सबसे गहरी प्रेरणा बनता है —
अजीब रोज़गार है, ना नफ़ा, ना नुक़सान।

मैं क्यों लिखता हूँ, हर रोज़ रिसता हूँ
जब शब्द मेरी देह से पसीने की तरह बहते हैं,
और मन की दरारों में धीरे-धीरे भरते हैं।
जब भूख से ज़्यादा ज़रूरी लगती है एक सच्ची पंक्ति,
और भीड़ में भी मैं सिर्फ़ अपने भीतर की आवाज़ सुनता हूँ।
दुनिया का सबसे सुखी वही इंसान होता है,
जो आईने में खुद से नज़रें मिलाता है।
ज़ख़्मों की राख में भी एक जुगनू जगमगाता है,
और उसी उजाले में मेरा सुकून मुस्कुराता है।
मैं इसलिए लिखता हूँ ।।"


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