By Aditi Mathur

स्थावर होके भी
आकाश की ऊंचाइयाँ
और पाताल की गहराइयाँ छू आयी में
आँखों में जो रात कटी तो,
पल भर में सारा संसार घूम आयी में
मन के गहरे अंधकार मैं
डरी सहमी सी विचर आई में
न जाने कितने दानवो से
अकेले ही भिड़ आई में
निराशा के बादल
संदेह के गड्ढे
व्याकुलता की खाई
आत्मालोचन की बौछारो से
बचती बचाती आईं में
अपने अंतरद्वन्द से भी
दो दो हाथ कर आईं में
घिरती जा रही थी,
अंधेरों से जो में
एक लौ टिमटिमाती सी
आशा की जाला लाई में
आशा की जो लौ जली तो
स्पष्ट देख पाई में
स्वास बाकी
खून में गर्मी बाकी
और हाथ में जिंदगी की लकीर बाकी
पाई में
समेट कर बिखरे टुकड़ो को
फिर चाक पर चढ़ा आई में
घुमाकर जीवन का पहिया
कुम्हारन सी, नई हंडिया बना लाई में
उठा कर ऊन सतरंगी
सपनो का ताना बाना बुन लाई में
पँख लगा कर उन सपनो को
उन्मुक्त गगन में उड़ान भर आईं में
पाताल की गहराईयों से
आकाश की ऊंचाइयाँ तक छू आईं में
आँखों में जो रात कटी तो
सारा संसार घूम आई में।