By Achla Jha

बरस रहे घन घोर घनेरे
हरित पात पर धवल बूंद
बैठी हूं चुप
आच्छादित मन, नयन मूंद
याद तेरी
वक़्त नहीं कभी देखती
जाने कब मन में आ बैठी
पलों को बातों में गूंथ
बैठी हूॅं चुप
आच्छादित मन, नयन मूंद
हाॅं ,भरी हूं मैं
मेघों सा पर भाग्य कहां
बरसे, उस पर ये सरलता
हर प्यासे मन को दे तरलता
बैठी हूं चुप
आच्छादित मन, नयन मूंद
न बिखरी हूं ना बिखरूंगी
घन घोर घनेरे तुम सा मैं
ग़म मेरा केवल एकल है
घट भरता है बूंद बूंद
बैठी हूं चुप
आच्छादित, मन नयन मूंद