Aankhen – Delhi Poetry Slam

Aankhen

By Arpit Kumar Jain

वह झूठी वाली मुस्काने जो,चहरे पर छा जाती है।
कुछ अश्क छुपाकर लाती है, कुछ दर्द बयां कर जाती है।।

कैसी निर्मल कमजोरी है, जब भाव बयन तक न पहुँचे।
नस नस मेरे दौड़ रहे, माफी जो तुम तक न पहुँचे।।

हम सब सहलेंगे चुप रहकर, सहना तो हमको आता है।
तुम आँख मुँधकर रह लेना, तुम को जो ज्यादा भाता है।।

ये कैसा प्यारा बंधन है , छोड़ा कितना न छूट सके।
आँखों में क्रंदन भरा रहा, न फुट सके न रूठ सके।।

तुमको तो इसमें अकड़ दिखी, फिर तुमने गर्दन अकड़ाई।
शब्दों का मिलना बहुत दूर, नज़रें नज़रों से शरमाई।।

बंधन वह लगता बंधन सा , फुंकार भर रहा क्षण क्षण था।
जहर लगी जो बात कही, फिर क्यों हो मेरे साथ अभी?


आंखे कुछ कहना चाहती है, सुनने वाले की आंख नहीं।
सब कहकर चुप हो जाती है, सुनने वाले की बात नहीं।।

फिर पलकें भी झपकाती है , गर्दन को ऐसे घुमाती है।
जब सुना नहीं जाता तब ही ,बस झुक कर के रह जाती है।।

मन ही मन बे पछताती है, और प्रश्न पूछना चाहती है।
क्या कर्म किए ऐसे हमने, क्यों नहीं बीतते ये लम्हे!

न बोल सके जो कहना था, न पूछ सके संग रहना था??
बदलाब बदलता रहता था, छिपछिप कर के में सहता था।।

नज़रें नज़रों से ज्यों मिलती, इतिहास से वाक़िफ हो जाती।
जो युद्ध लड़े हमने तुमने, सब हार जीत तय कर आती।।

तुमने भी बाण चलाए थे, हमने भाले मंगवाए थे।
जो सह न सके जो दर्द कही, हँसकर के पुष्प खिलाए थे।।

आँखें क्या कहना चाहती है, पूछो उनसे एक बार सही।
थामों तुम अपनी आँखों को, मौका तो दो एक कही।।

और खो जाओ उन आंखों में, ढूंढों क्या कहना चाहती है।
कितना कुछ कहना चाहती है, ना कहकर भी कहजाती है।।

वह अश्क नहीं अर मुक्ति है,जो भींगे पलकों से गिरते।
जो दर्द अभी तक बहा नहीं, वह कहने को ही वे गिरते।।

वो आँख नहीं समुंदर है, जो फटने को तैयार खड़ा!!
जिन बेड़ी ने अब तक बांधा, क्या रोक सकेंगी उसे भला?

छोड़ो तुम अपनी मर्यादा, खोलो तुम अपने भाव अभी।
बस हृदय-हृदय की बात कहो, कह तो दो जो है सही सही।।

जो हाथ बढ़ाया जो तुमने, कसकर के हमने थाम लिया।
जो पीर बताई अंतर की, श्रद्धा से हमने मान लिया।।

थी बात आज मैंने जानी, थी तुमको भी कुछ समझानी।
हम वस्तु नहीं जो प्रयोग करें, इंसा से इंसा का जोग करें।।

वो समय नहीं इतना काबिल, जो स्वार्थ लिए आगे बढ़ता।
व्यक्ति की महिमा ऊपर है, हर समय तुम्हारे साथ खड़ा।।


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