By Aanchal Khanna
कभी फूलों की महक में खुद को मिल जाती हूँ,
कभी पत्तों की सरसराहट में यूं ही इठलाती हूं।
कभी लहरों सी नदियां की धार में लहराती हूं,
कभी बादलों की गड़गड़ाहट में छुप जाती हूं।
कभी सर्दियों में धूप की धमक बन सहलाती हूं,
कभी खामोश पर्वतों की तलहटी सी बन जाती हूं।
न जाने कहां कहां मैं खुद को पाती हूं,
अब हर जगह हर पल में सिमट जाती हूं।
आजाद पक्षियों की मनोरम उड़ान भी हूं,
बेजुबान पशुओं की जुबान भी हूं।
मैने जोड़ लिया अब खुद को जबसे,
की कुछ अलग थलग रहा ना तबसे।
पहचान ढूंढने खुद की चली थीं,
की हर पहचान मुझे मुझ तक ही पहुँचाती हैं।
पर कभी कभी खुद से ही अनभिज्ञ हो जाती हूं,
अपना पता खुद ही भूल जाती हूं।
हूं मैं कौन? ये प्रश्न बड़ा विह्वल करता है।
मेरे नाम से परे मेरी पहचान खोजने को आतुर करता है।
क्या खोज पाऊंगी मैं मेरा पता से अगणित प्रश्न भरे हैं।
स्वान्वेषण मानो मेरी क्षमता से परे है।
स्वखोज से परे हर प्रश्न निरर्थक लगता है,
कोई अप्रतिम सा सत्य मन को अचरज से भरता है।
हर राह की मंजिल मुझे मेरी ही झलक दिखलाती है,
जिसे खोज रही मैं, वो मेरे ही भीतर मिलेगा कहीं,
बड़े प्रेम से समझाती है।