मैं दुर्गा नहीं बनना चाहती, मैं सिर्फ़ एक इंसान बनकर जीना चाहती हूँ। – Delhi Poetry Slam

मैं दुर्गा नहीं बनना चाहती, मैं सिर्फ़ एक इंसान बनकर जीना चाहती हूँ।

By Sangita Debnath

 

बचाओ, बचाओ, बचाओ मुझे,

एक तेज़ धूपवाले दिन था,
दुर्गा अस्टमीके दोपहर था,

भक्तों से भरे माँ के मंदिर था,
चारों ओर सुंदर अलौरन था,

घंटियाँ और शंख बज रहे था,
ढोलक के तालो पर हवा अर नीला आसमान भी,
मानो जैसे नृत्य कर रहा था।

जब भक्तगन मग्न थे, पुष्पांजलि मे,
इसी बीच चारों ओर से एक भयानकसा आवाज,

"बचाओ, बचाओ, बचाओ",

अचानकसे सबकुछ जैसे थमसा गया,
एक काले गारी से,

किसीने एक लेरकी को फेक दिया,
उसके शरीर नग्न थे, सिर्फ़ बलात्कार ही नेही,
तेजाब की बून्द-बून्द से उसकी चेहरा भी जल रहा था।
रूह कापने बाले उसकी आवाज़ थी,

"बचाओ, बचाओ, बचाओ मुझे"।

जल्दी से उसे अस्पताल ले गया था,
जिसके बाद हर कोई बड़बड़ा रहा था,
और कानाफूसी कर रहा था,

एक तरफ़ पुजारीजी कहे रहा था,
एक तरफ पुजारी जी कह रहा था,
"मैंने इस लड़की को कुमारी पूजा की थी,
ऐसे ही एक अष्टमीके तिथि पर।"

कोई और कह रहा था,
"मैं इस लड़की को जानती हूं।
रूप और गुण से सम्पूर्ण,
एक विद्यालय की शिक्षिका है,
जैसे साक्षात दुर्गा रूपी।"

लेकिन आज बो लड़की दुर्गा नहीं बनना चाहती थी,
बो सिर्फ़ एक इंसान बनकर जीना चाहती थी,
बस उसकी आवाज़ थी,

"बचाओ, बचाओ, बचाओ मुझे",

सभी भयभीत भक्तोगन के मन में एक ही परसन थे,
मा, ये तुम्हारा केसा फ़ैसला है ?

अचानक मेरी नज़र एक छोटी-सी बच्ची पर पड़ी, करीब-करीब नौ साल की थी,

अपनी माँ की गोद में बैठी,
डर के मारे रो रही थी।

तभी एक दादीमाँ आयी और बोली,
रो मत बेटियाँ, "हमतो औरतजात है"।

हमारे तो पूजा होता है, वह भी पुरुषो के हातो से,
कोई कहेगा दुर्गा तो कोई कहेगा सरस्वती,

पर काम के बास्ते सिर्फ़ हमारे शरीर ही चाहिए,
किसीको दिन में तो किसीको रातमें।

इस समाज में कुछ लोग हे,
जो औरतको कभी भी नहीं समझागे,

हम कोई दुर्गा नहीं, हम भी इंसान हैं,
खून अर मांस से बने इंसान हैं।

ये जो बलात्कार का दाग है,
कभी भी मिठते नेही लेरकीयके शरीरसे,

सिर्फ शरीर का ही नेही,
बहत सारी औरतोका तो,

मनके भी बलात्कार होता हे,
पर मन तो अनदेखा है,
मन को देखने बाला कौन हे।

औरतजाट देश तो जीत सकती हे,
लेकिन लोगों के दिलों को नहीं जीत सकती।

कुछ लेरकिया तो माता-पिताके पासही अपराधी है,
अपराध सिर्फ़ इतना है,
की बो लेरकी है कर जन्म लिया हे,
और नेही तो शरीर का रंग काला हे,

औरतकी मांगभरा सिंदूर है तो बो लक्समी है,
अर सिंदूर मिठकर बिधबा हुए तो अलक्मी है।

इस समाजने जिसका नाम दिया बेस्या,
उन बेस्याकी घोरसे लायी हुयी मिट्ठीसे,
बनती है दुर्गामाँ की मूर्तिआ।

और जो लोग इस बेस्या के घर में,
अपनी राते रंगीन करते हैं,
वे लोग हे इस समाज के सज्जन लोग।

लोग बोलते हे औरतजात तो दुर्गा माँ के रूप हे,
घर हो इआ बाहर हो,
सब कुछ आरामसे संभाल सकती हैं।

इस बार दुर्गा पूजा में,
माँ की एक रूप देखि,
दुर्गा माँ के दस हातमे दस चीजे थी,

जेसेकी खूंटी, कड़ाही, किताबे,
और भी बहुत कुछ थे।

अच्छा, क्या औरतो का सचमुच दस हात होते हैं?
हकीकत में तो सिर्फ़ दो ही तो हात हे,

क्या दो हातोसे सब कुछ संभालना आसान हैं,
और मानलो, यदि सबकुछ कर भी सकते हैं,
तो दर्द भी तो होता है,
किसी के मन में, तो किसी के शरीर में।

औरत लोगतो कोई यन्त्र नहीं हैं, वे भी इंसान हैं,
खून अर मांस से बने इंसान।

वास्तव में, औरतों का एक अभाब हे,
हमेशा ही एक अभाब,
ये अभाब सम्मान की, केवल सम्मान की।
समझ गयी बेटीया।

दादी की बात से सभी की आँखों में आंसू था,
और मेरे अंदर एक नया नज़रिया जन्म लिया,

जो में कहती थी, मैं एक औरत हूँ,
मैं सबकुछ कर सकती हूँ,

अब मैं कहती हूँ,
कियु मुझे ही करना हे सब,
मे भी तो इंसान ही हू,

अब और दुर्गा नेही बनना चाती हू मैं।
अब मैं सिर्फ़ एक औरत होने का सम्मान चाहती हूँ।

हाँ, मैं दुर्गा नहीं बनना चाहती,
मैं सिर्फ़ एक इंसान बनकर जीना चाहती हूँ। '

मैं सिर्फ़ एक इंसान बनकर जीना चाहती हूँ। '


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