By Dr. Sameeksha Mishra
रात की वो ठंडी हवाएँ,
और सितारों की बारात चाहिए।
सच कह रही हूँ मैं —
मुझे चाँद चाहिए।
आसमाँ के पार हो,
या बीच मंझधार हो —
बारिश की बूँदों में बसा पयाम चाहिए।
सच कह रही हूँ मैं —
मुझे चाँद चाहिए।
ज़िंदगी की राह में,
कितनी ही ज्वालाएँ जलीं,
पर मैं इस आस को हूँ बाँधे चली —
तन्हाई में, खुद ही गुनगुनाना चाहिए।
सच कह रही हूँ मैं —
मुझे चाँद चाहिए।
इस ख़ुशी की राह में,
हैं बहुत काँटे पड़े।
छील देंगे पग तुम्हारे —
इस बात पर हैं वो अड़े।
फिर भी उन काँटों की
एक कोमल व्यथा पहचानिए।
सच कह रही हूँ मैं —
मुझे चाँद चाहिए।
ज़ख्म खाया है पगों ने,
पर घाव हृदय पर हुआ है।
फिर भी, न इस बात का
एक ग़म हमको ही हुआ है।
ऐसे दिलों के घाव को,
आशा की मरहम चाहिए।
सच कह रही हूँ मैं —
मुझे चाँद चाहिए।
तभी हमने देखा —
चाँद को ठहरे हुए।
चाँद कदमों पर ही था वो खड़ा।
छुप रहा था बादलों में वो कहीं —
शायद किसी दुविधा में था वो पड़ा।
उसकी आँखें भाँप लीं,
उसकी सोच जान ली।
दुबारा आने के लिए,
उसे रोशनी का छलावा चाहिए।
सच कह रही हूँ मैं —
मुझे चाँद चाहिए।
चाह कर भी हम उसे न पा सके।
अब वो चाँद, वो रोशनी भुला चुके।
चाँद के आगे,
सितारों तक जाना चाहिए।
आसमाँ में नहीं —
अपने भीतर ही चाँद बसाना चाहिए।