अँधेरा – Delhi Poetry Slam

अँधेरा

By Archit Shah

 

“मत जाओ, वहाँ अँधेरा हैं!”
बचपन से सिखाया गया हमें
यह फरक समंदर सा गहरा हैं|
कहा था लोगो ने,
दिन के काम इंसान के होते हैं
और रात शैतान का डेरा हैं|
किसने तय किया यह अंतर
जो आज भी सबके ज़ेहन में ठेहरा हैं?

छोटी उम्र से देखा यह भेद हैं,
बुराई अँधेरे में ही हैं पलती
और अच्छाई का रंग सफ़ेद हैं |
भगवान की पूजा होती है सुबह
और अँधेरे में ही
बनता भुताहा वह पेड़ हैं |
किसने तय किया यह अंतर
जो आज भी सबके ज़ेहन में
करता मतभेद हैं?

जो कह गया यह सब
क्या उसने यह नहीं बताया हैं?
दिन में लोगो ने आपसी रंग देख
सुन्दरता का अर्थ
अपने हिसाब से जो सजाया हैं |
तब इन नए दौर के गोरों से,
साव्लों को ज़मानत
उस अँधेरे ने ही तो दिलाया हैं |


गफ्लों से अपना घर चलाती,
वह सफ़ेद कुर्ते पहनी सरकार ने ही
तो देश को गिराया हैं,
और देश का मैल साफ़ करता,
धूल से काली यूनिफार्म पहने
उस जमादार ने ही तो कचरा उठाया हैं |

क्या उसने यह भी नहीं बताया?
काली स्लेट पे घिस कर ही
लाखों गरीबों ने अपने जीवन में
ज्ञान का दीपक जलाया हैं,
और काली कोट पहने उस वकील ने ही
सच्चाई का साथ निभाया हैं |

जो कभी तुमसे केहता
कोई चेहरा हैं,
कि दिन में है फ़रिश्ते बसते
और रात शैतान का सेहरा हैं,
की मंगल समय वही हैं
जो अंत करता अँधेरा हैं,
और अन्धकार सिर्फ चोर-उचक्कों
के लिए ही सुनेहरा हैं |

तो पूछना उस से,
किसने तय किया यह अंतर
जो आज भी उसके ज़ेहन में ठेहरा हैं?

 


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