By Amit Kumar

सुना है बड़े दिनों से
हवा की सेहत खराब है
घुटती-मरती हवा को
सुथरी साँसों की तलाश है
सहमा-सहमा सा
सच है कहता
दम तोड़ती
साँसों को ही आज
साँसों की दरकार है
चारागर का कहना है
प्रदूषण की मार है
आँखों में अगन
गले में खराश है
कोई धुंध कह चला
कोई कहकर निकला
धुएँ का गुबार है
धूलकणों को ढोता कोहरा
कोहरा नहीं कोहराम है
कैसी कशमकश की हवा बही
कैसा हाहाकार है
कुदरत से छिड़ा
कैसा बेतुका संग्राम है
सड़कों पर सड़कें तानकर
भीड़ को छितराने की
यह कैसी रेलारेली है
खुद को खुद ही उलझाने की
यह कैसी अजब ठिठोली है
दूरियों को पाटकर भी
समय को पछाड़कर भी
टूट रहा है मन
बदन में थकान है
आने वाला कल
बदहवास-सा
अभी से परेशान है
दम तोड़ती हवा के साथ
अब डर लगता है जीने में
जीते-जी जीने की
अब टूट रही है आस
जहर लीलते नथुनों में
अब अटक रही है साँस
बिलख-बिलख रोती है धरती
करती है फरियाद
सुन-सुन क्रंदन मन भारी
सुन-सुन अंबर तन भारी
दुबक पड़ा है
घर में जन-जन
सोख-सोख हवा को
कर डाला बीमार
सवाल अड़ा है
विराट खड़ा है
कौन हवा के अंसुअन पोंछे
सदियाँ बीतीं
इन्हीं हवाओं ने
तेरे-मेरे पुरखे पोसे
जुल्म ढाएँ हैं
जो हवाओं पे
कहीं ढलकें न
बन-बन आँसू
सोच जरा तू
सवाल अड़ा है
पर वक़्त बड़ा है
धरती अंबर डोल रहा है
सारा आलम बोल रहा है
चल बंधु
अब लौट के आजा
न बन अनजान
लौटा दें साँसे साँसों को
जी लेने दें अब जीवन को
दे दे जीवन-दान
डाल दें हवा में फिर
वही नई-नई सी जान
बाल-मन में अलख जगा दे
इंकलाब की लौ लगा दे
हर घर-आँगन पेड़ लगा ले
हवाओं से रिश्ता निभा ले
स्मरण रहेगा सदियों-सदियों
आने वाली नस्लों को
तेरा यह बलिदान !