By Vidhigya Pathak
इक तिराहे पर खड़ा हो, दृश्य को अनुमानता हूं।
बांधता हूँ हाथ अथवा स्वयं को ललकरता हूँ।
मुस्कुराकर, खिल-खिलाकर, वेदना को छेड़ता वो।
क्षीण करके काँति मेरी, मरत्यता को ठेलता वो।
(अंतर शत्रु )
हे मनुज, तू है भ्रमित, उद्योग तेरे सब विफल है।
वक्त कि पगडंडीयों पर द्वंद्व तेरे सब तरल है।
जिस तिराहे पर खड़ा हो स्वयं को तू हाँकता है
चयन कि परीकल्पना से, भीति में तू काँपता है।
सोचता है, ऐंठ बाहें काल को तू थाम लेगा?
सत्य को कर कैद क्या अब कल्पनाओं में जियेगा?
है नहीं संभव, कि अंकुश तान दे तू प्रकृति पर,
स्वप्न तेरे हैं मदित, निज बोध को सक्रिय तो कर।
(स्व)
स्व ने बोला, काँपता हूँ , पर नहीं मैं कल्पना से।
सकपकाता हूँ खड़ा, ना भीति से ना सत्यता से।
रंजिशो से, द्वंद्वता से, मैत्री मेरी हो चुकी है।
प्रकृति को जीत लूं, ऐसी मेरी इक्षा नहीं है।
हूँ ग्रसित मैं, ये तपन, ये ग्रीष्म, या बस कल्पना है?
हूँ तृषित की, ये पिपासा, ये ललक बस कल्पना है?
हूँ बंधा मैं बंधनों की मधुर बंकीम छावनी से,
उलझने, ये अटकने, ये व्योग मेरा कल्पना है?
प्राण, ममता, बंधनों की रोकती है राह मेरी,
रूढ़ सारे खींचते पीछे पकड़ कर बांह मेरी।
काल कि पगडंडीयों पर द्वंद्व तो निरर्थता है।
प्रकृति तो सहचरी है, द्वेष उससे मूढ़ता है।
राह तीनो उज्वलित, ह्रदय कि बस भिन्नता है,
दे झूलाने जो कमंडल, उस दिशा में तीव्रता है।
पर नहीं है अन्य कोई रास्ता अब ढूंढने को,
राह तीनो सम्मिलित हों, कल्प कोई सोचने को।
मरत्यता के चयन मुख पर भ्रान्ति को परिहारूं कैसे?
रक्त के इन बंधनों को बोलो मैं बलिहारूँ कैसे?
रजो गुण को, तमो गुण को सतो में मैं युक्त कर दूँ,
या कहो तो बन विदेह, खुद क्लिशठता को नष्ट करदूँ।
सोचता हूँ स्व को इतना उत्कर्षमय, उत्तीर्ण करलूँ,
नयन घूमें जिस दिशा में, क्लेश सारे क्षीण करदूँ।
पर नहीं है सत्य ये भी, मिथ्य है, परीकल्पना है,
सम्य कि अनुपस्थिति में व्याप्त कोई वेदना है।
मोड़ता हूँ बांह तेरी, आस में उम्मीद में मैं,
क्या समय को रोक लूंगा चयन कि इस पीठ पे मैं?
क्या समय कुछ मिल सकेगा सोचने को, विचारने को?
क्या समय ही राह देगा मुझको कोई आंकने को?
राहों में हैं दिख रहे तीनो जगत के सार सारे,
चिर प्रकाशित हो रहे, तीनो के उद्यान सारे।
अल्पभाषि है सखी भी इस द्विधा में, इस घड़ी में,
तिश्नगी को कौन देगा शांति बोलो इस महि पे।
इक तरफ है, निशा में जो, नाट्य भांति नाच करता।
इक तरफ है, स्वप्न में भी अर्थ को पुचकार भरता।
इक तरफ है, जटा खोले, मग्न खुद में, प्रकृति में,
कंठ में वेदांग शुभते, जो मृषा का त्याग करता।
इस स्थिति में, इस मृषा में हैं कई विभरांत राही,
उत्तेजना से, भोग से हैं तृप्त करते तिश्नगी को,
वासना में डूब जाते, हैं मगर अतृप्त मरते।
न सत्य है, न सम्य है, न भेंट कोइ है किसीको।
क्या द्वंद्व करने से सनातन में मुझे उत्तर मिलेगा?
मग्न ना हूँ भोग में तो तुष्ट मुझको मिल सकेगा?
इस तिराहे पर खड़ा हो, प्रश्न खुदसे पूछता हूँ।
व्याप्तता है मन मही को राह खुदमें ढूंढता हूँ।
मरत्यता के सुगम पथ पर अगमता की वृहत छाया,
दार्शनिक है दृश्य सम्भरम, अमर्त की है गजब कया,
उस अमृत का पुत्र हूं मैं, मृत्यु से क्यों भागता हूं?
दृढ़ता के बीज मुझमें, क्यों उखटता, कांपता हूँ?
प्राण संज्ञा कथित विद्या के परे से झाँकती है,
ताकती है राह, किंतु मरत्यता से भागती है,
भूयिष्ठ हैं श्रवण कुंठित, आड़ साधी अक्षुओं पर,
बस शोर है, किस ओर है, संदेश किसके, कौन है?
वायु में जो तैरती है, मनस में जो गूंजती है,
श्रवण झिल्ली के किनारे बैठे हैं बाहें पासरे,
कूक देती जो कभी तू, झिल्ली झीनी पार करके,
चयन करता बेहिचक मैं, मृषा किलविश काट करके।
देखता हूँ गौर करके, अमित मण्डल की कलाएं,
देखते हैं कई प्रेषक, दिशा में इस चयन पथ के,
सीम है अलोक भी, असीम उनकी योग्यता है,
चिन्ह है क्या ये, निज हीनता का, क्षीणता का?
चयन पथ पर क्षुब्ध हूँ, मैं व्यग्र हूँ, सब व्यर्थ में ही?
स्वयं से मैं क्रुद्ध हूँ, मैं हूँ किसकता व्यर्थ में ही?
न बंधनों से रुद्ध हूँ, अवरुद्ध हूँ मैं योग्यता से?
शिथिल हूँ न रूढ़ से, पर चर्य से प्रवर्तना से?
तोड़ अपनी छावनी को, जटिल पर्वत लांघ आऊं?
त्याग दूँ मैं वरण सारे, रोच, राग, बंधनों को,
विस्मरण की पोथीयों में डाल उनकी अस्तियों को,
प्रेषिका को प्रेष दूँ, वीरान उसके मधुर तट पर?
त्याग के किस चीर का बोलो मैं उपधान करलूँ?
ताप के किस क्षीर का बोलो मैं उपभोग करलूँ?
क्रिया के किस लक्ष्य का बोलो मैं सन्धान करदूं?
ज्ञान के किस सार का बोलो मैं सब भान करलूँ?
क्या अजब सी बात है, उत्तर नहीं बस शोर है,
क्रुद्ध है असीम कोई या पवन का रोर है,
प्रश्न मेरे सुनलिए हैं, हल नहीं पहचानते हो?
वाणी ऐसी बोलते हो, श्रवण को उपभ्रान्ते हो?
व्योम से फिर गूंज आयी, झिल्ली के उस पार गुंजी,
श्रवण फिर निष्काम बैठे, मनस में फिर बात गुंजी,
दन्त का परदा हटाया, अधर को मुस्कान सूझी,
अश्रुपूरित नेत्र मेरे, ह्रदय में इक राग गुंजी।
(व्योम वाणी)
कई पर्वत पार करके सत्यता की खोज देखि,
कई घड़ियाँ घूम करके मरत्यता भी मंद देखि,
कई सदियों में जलाएं हैं कई पोशाक अपने,
चयन पथ पर इस मृषा में वार्ताएँ बहुत देखि।
जिस गतपन से ग्रस्त है तू, उस जलन को जनता हूँ,
उस तृषा की वेदना को, पूर्णतः पहचानता हूँ।
चयनपथ की क्लिष्टता को सोचता हूँ, लेखता हूँ,
इस वृहत सम्भरम दशा को प्रेशता हूँ, देखता हूँ,
देखता हूं चयन सारे, नाट्य, अर्थ, और ज्ञान सारे,
देखता हूं भोग सारे, लोभ सारे, राग सारे,
देखता हूँ धर्म सारे, चार्थ, काम, मोक्ष सारे,
देखता हूँ क्रोध सारे, वेश सारे, ढोंग सारे।
प्राण संज्ञा की कलाएं, आड़ के उस पार सोती,
पर अचलेश के ह्रदय में कामनायें मौन होती,
गूढ विद्या चाहिए, तो आड़ झीनी फाड़ करके,
दृश्य का अनुमान करले, अक्षुओं को ढाँक करके।
प्रश्न करता हूँ, विजय, क्या अश्रुओं की आड़ देगी?
पूछता हूँ मैं, दिशा, क्या आवेश में चिंघाद देगी?
ये पिपासा, ये ललक बस योग्यता से शांत होगी,
ये तपन, ये ग्रिशम बस ताप से निष्काम होगी।
द्वंद्व करने पर सनातन में तुझे उत्तर मिलेगा।
मग्न ना हो भोग में, संतुष्ट तब तु हो सकेगा।
प्रश्न पूछेगा कभी जो मग्न हो कर प्रकृति में,
हर मृषा का काट, स्वंतर में तुझे उत्तर मिलेगा।
जिज्ञासु मन की अनंत संभावनाओं से परिपूर्ण नव अंकुर विराट वृछ बने यही शुभकामना है 🪷
अनुपम! Keep it up 👏
नए शब्दों का सृजन आपके काव्य कौशल में झलकता है। भविष्य के लिए मेरी शुभकामनाएं।
only Mr. Pathak can make me read Hindi poetry glued to the screen like this
Bahut sundar hai
Great Work. Wish you the best of luck. Keep writing.
सुंदर अभिव्यक्ति
अद्भुत, उत्कृष्ट कृति
अतिसुंदर रचना
Nice