By Vaibhav Mudgal
"लम्हों की चोरी"
चलो वक़्त की झोली से
कुछ लम्हें चुराते है
एक लम्हा ऐसा सा
एक लम्हा वैसा सा
एक लम्हा बच्चे सा
अठखेलियाँ करता हुआ
जो बोलने में तुतलाता हो
हाथ छोटे-छोटे से
गिरता-पड़ता रहता हो
सारे जहान की शिकायतें जो
अपनी माँ से करता हो
एक पल रोता हो
अगले पल हँसता हो
दीवारों पर परछाइयों से
शक्लें वो बनाता हो
चीटियों को पकड़ने को
जाल वो बिछाता हो
एक खिलौने के वो
अन्जर-पन्जर करता हो
बारिश में झूमता हो
अन्धेरे से डरता हो
एक लम्हा युवा सा
जो थोड़ा गुस्सा रहता हो
मौका मिलते ही वो
सबसे यूहीं उलझता हो
कम सुनता हो, ज्यादा कहता हो
कम पैसों में भी
ज्यादा खुश वो रहता हो
प्यार से जो छुपता हो
पर दिल हाथ पे रखता हो
किसी ने उसको छोड़ा हो
दिल भी उसका तोड़ा हो
अहंकार खुद पे ज्यादा हो
मन जिसका अभी सादा हो
दोस्तों पे मरता हो
तंज़ उन पर करता हो
सब उसके अपने हो
उसकी आँखो में सपने हो
एक लम्हा प्रौढ़ सा
जो सारे खेल समझता हो
यूही वादे करने से
हर समय बचता हो
समझौतों में जीता हो
गम सारे पीता हो
दोस्त जिसके दूर हो
थकन से जो चूर हो
बहुत कुछ उसे मिला हो
जो नहीं मिला उसका गिला हो
रिश्तों में जो जकड़ा हो
तन्हाइयों ने पकड़ा हो
दिल जिसका अब सख्त हो
कम जिसपे अब वक़्त हो
मुश्किलें जिसकी जाती न हो
नींद जिसको आती न हो
एक लम्हा बूढ़ा सा
जो स्मृतियों में खोया हो
उम्र का निचोड़ जिसने
हथेलियों में बोया हो
जो अतीत के फैसलों में
अपनी गलती मानता हो
जो माफ़ करना जानता हो
जो अब फिर ज़ोर से हँसता हो
जिसके दिल में अब भी
प्यार बेशुमार बसता हो
जो शाम को टहलते वक़्त
यूहीं मुस्कुराता हो
जो शीशा टूटने पर भी
गेंद बच्चों को लौटाता हो
जो ज़िन्दगी पे मरता हो
जो मौत से न डरता हो
एक लम्हा ऐसा सा
एक लम्हा वैसा सा
चलो वक़्त की झोली से
कुछ लम्हें चुराते है
कुछ लम्हों के लिए चलो
कही खो जाते है