डर- एक अचित्रित वास्तविकता – Delhi Poetry Slam

डर- एक अचित्रित वास्तविकता

By Sanskar Goyal

काश ये दुनिया सबके लिए एक सी होती,

तो शायद डर किसी के मन में नहीं बस्ता...

लोग आज़ाद ख़याल और बेख़ौफ़ होते हैं,

तो शायद आज जिंदगी का मंज़र कुछ और होता...

इसलिए शायद,

'डर' ही एकमात्र वजह है जो,

आज मन से निकली हुई बात भी,

हर किसी से कह नहीं सकते, इसलिए बंद कमरे की घुटन ही उसका दम तोड़ देती है...

कुछ लोग पूछते हैं, आख़िर डर क्या है?

डर का वास्तु रूप क्या है?

तो सुनिये,

'डर'- एक पैरो में पड़ी बेड़ियों की तरह, 

जो खुल कर भी खुले आसमान को छूने भी नहीं देता...

'डर'- एक वहम है, 

जो किसी के मन में बस जाए तो निकलने नहीं देता...

'डर'- एक दीमक है,

 जो एक बार कहीं लग जाए तो हटे नहीं हट ता...

'डर'- एक मजबूरी है, 

जो हर किसी की रोज़ाना जिंदगी का एक खास हिसा है...

'डर'- एक लज्जा है, 

जो हर किसी को घूंघट करके रखना पड़ता है...

और डर डर डर....

ऐसे तो डर के अनेक रूप हैं,

कब कहा पता नहीं किस मोड़ पर दिख जाए किसी को क्या पता...

इसलिए शायद,

आज भी लोग इसकी उम्मीद रखते हैं

काश ये दुनिया सबके लिए एक सी होती,

तो शायद डर किसी के मन में नहीं बस्ता, नहीं बस्ता....


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