गुमशुदा – Delhi Poetry Slam

गुमशुदा

By Saakshi Joshi

रात को ठीक से नींद आई?
मच्छरों ने तंग तो नहीं किया?
नाश्ते में क्या खाओगे?
बॉयल्ड एग्स एंड ड्राई फ्रूट्स विद कॉफ़ी (boiled eggs & dry fruits with coffee), या फिर घी से लदे आलू के परांठे?
कोई कपड़े हैं धुलने के लिए? मैं मशीन (machine) लगा दूँ?
बाल कब धोए थे? मैं चम्पी कर दूँ?
सवालों की लिस्ट और अपनी मल्टीटास्किंग (multitasking) का ट्रेलर (trailer) ख़त्म कर,
हाथों में बीस लीटर की ऊपर तक भरी बाल्टी पकड़, मई की धूप में कपड़े सुखाते सुखाते
हमें सूरज से विटामिन डी लेने को कहती है वो, जिसको खुद विटामिन डी की कमी है
जो हर हफ्ते की एक गोली अक्सर खाना भूल जाती है
और उसे याद दिलाओ तो
अपनी टेढ़ी चाल और हवा सी हड्डियों को झटक कर कहती है
‘क्या ही फर्क पड़ता है? मैं तो बिल्कुल ठीक हूँ’
‘आई ऍम एकदम फाइन’

लैपटॉप की ‘टक टक’ से दब जाती है घड़ी की ‘टिक टिक’
तो सुबह से दोपहर होने का पता देता है हमारा घरेलु अलार्म
‘लंच में दाल भात चलेगा पुदीने की चटनी के साथ? या तुम्हारा अपना कोई प्लान है?
कोई मीटिंग तो नहीं है ना दिन में? बीच में खाना पकड़ा दूँ तो ठीक है?’
सवालों का ये राउंड 2 ले जाता है
बॉस की ईमेल से उस गर्दन की तरफ़
जहाँ
उबलते तेल की छीटों का नेकलेस जैसे परमानेंट रेसिडेन्ट (permanent resident) बन गया हो
और ठान लेते हैं हम कि माँ का रूटीन कभी अपना रूटीन न बने,
इस से बेहतर है बॉस की पहेलियाँ सुलझाना

बॉस की ईमेल समझने में, वापस एक जवाब सेंड करने में,
कुकर की सीटीं में, मिक्सी की घरर में,
जीरे के भूनने में, एक्सहॉस्ट (exhaust) की दहाड़ में,
शीशे की बोतल में सजाये मनी प्लांट की बेल में,
टीवी देखते देखते आये नींद के झोंके में,
अपने पति से लगाई शाम की चाय की गुहार में,

वक़्त हो जाता है सूरज का गुलमोहर के पीछे गायब हो जाने का
स्पोर्ट्स शूज़ (sports shoes) के फीते बांध, नीचे वॉक पर निकलने का

60 मिनट की वॉक बटती है अलग अलग एपिसोड्स में
पहले सेगमेंट में होती हैं 3 - 4 फ़ोन कॉल्स
किसी की शादी की छुई, किसी की सेहत का अपडेट,
पोती की आवाज़ से मिलती ख़ुशी, और दोस्तों से मिलने का प्रोग्राम (जो पिछले 3 महीनों से बन ही रहा है)
अगले सेगमेंट में मोहल्ले की वाइल्डलाइफ (wildlife) शामिल होती है
नीचे बिखरे चंपा जो टकटकी लगाए देखते हैं (ताकि वो हमारे जूतों से बच जाएँ)
भूरी बिल्ली जो सामने आ पड़ती है पंगे लेने के लिए
हरी घास जो कहती है कि यहाँ बैठो, सांस लो

जैसे ही मौके मिलते हैं खुद से मिलने के

पानी की मोटर, पापा का एक कॉल, रात के खाने की चिंता वापस खींच लाती है उसे
घास की खुली गुदगुदी से जूतों की क़ैद और फुटपाथ के गरम कंक्रीट पर
ताकि लौट आये वो उन कामों और ज़रूरतों के पास
जो समाज ने उसे अपने से आगे और पहले रखना सिखाया है

और इसपर जब सवाल उठाओ, जब पूछो कि कौन है ये समाज?
जो लगा है इसको, मुझको, तुमको, किसी ज़िद्दी दाग़ कि तरह धोने में,
तो यहाँ भी वो बोलेगी कि ‘आई एन्जॉय माय लाइफ’ (I enjoy my life)
क्योंकि
विटामिन डी की कमी वाली वो अकेली तो नहीं
दुनिया भर में उस जैसी घर की रीढ़ हैं
जिसने किसी की शर्ट के बटन, किसी की ऑफिस मीटिंग, किसी के बुख़ार, किसी के डाइट प्लान को
बना लिया है अपना रूटीन
बीच में कभी ख़ीज उठती भी है तो इसे अकेलापन या थकान का नाम दे देती है
मेरा रूटीन क्या हो? ये सोचने की बजाय खुद को याद दिलाती है कि
टेढ़ी चाल वाली वो अकेली तो नहीं, ‘सो व्हाई इस इट ा प्रोब्लेम?’ (so why is it a problem?)

घर पहुँच खो जाती है वापस उन कामों में जिसके लिए उसे
ना प्रमोशन मिलता है, ना पैसा, ना एक थैंक यू, और कुछ घरों में, ना ही प्यार

बर्तन खाली कर, बची दाल और गोभी की सब्ज़ी फ्रिज में रख,
वो आती है कमरे में गुड नाईट कहने, पूछने हमारी अगली सुबह का प्लान
फिर बढ़ती है अपने बिस्तर की ओर, रुट कैनाल, एंकल, वेरिकोस वेइन, सभी के दर्दों को समेटे
सरसों के तेल से पैरों की मालिश कर, हम कामचोर, माँ के गद्दारों का रूटीन अच्छे से मैनेज कर,
अपने गुमशुदा ख्वाबों की तरफ़

बस, यही है माँ का रूटीन


2 comments

  • Bahut khub perfectly described

    Goma
  • Mothers’ selflessness has been depicted Beautifully! This is a wonderful tribute to mothers.

    Natasha

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