रात के अँधेरे में – Delhi Poetry Slam

रात के अँधेरे में

By Nistha Verma 

इस रात के अँधेरे में, मैं मैं बन जाती हूँ,
जब बत्ती बंद हो जाती है,
जब रज़ाई सर पर ओढ़ ली जाती है,
इस रात के अँधेरे में तब,
मैं मैं बन जाती हूँ|

सारी गलतियां याद आती हैं,
सिर्फ पछतावा देके जाती हैं,
फिर वो वक़्त याद आता है,
जब वो वादे मैंने किये थे,
अपनों के साथ रहने के,
अपनों को प्यार देने के,
ना जाने क्यों उनको फिर भूल मैं जाती हूँ,
इस रात के अँधेरे में,
मैं अब भी मैं बन जाती हूँ|

आँखों में आंसू होते है,
जिनमें कई गोते लगते हैं,
कोशिशों के बाद भी सब दोहराता है सामने,
और फिर खुदको और कोसती हूँ,
इस रात के अँधेरे में,
एक बार फिर मैं मैं बन जाती हूँ|

फिर अपने जब माफ़ करते हैं,
गलतियों को भी बयान करते हैं,
पर तब तक देर हूँ जाती है,
दिल सबके मैं दुख जाती हूँ,
इस रात के अँधेरे में,
मैं हर बार मैं बन जाती हूँ|


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