By Muskan Chopra
तेरे नूर के शीशे से दूर किस आफताब की आक्रोश मैं लिपटे चाँद को निहारूँ
तू रूह को छू ले ऐसी ख्वाहिश मैं अपना वक्त गुजारूं
एक दीदार को तेरे यूं विचारों के सैलाब से गुजरूं कि जब तुम्हारे दीदार हों तो सारा सफर सुकून सा लगे
तू एक दफा देखे तो जिस्म में जैसे हजारों गुलाबो को जैसे हजारों पैगाम मिले हूं
तू इस तरह महके की गुलाब भी शर्म से अपनी फितरत छोड़ दे
कुछ अनकहे लफ़्ज़ ज़ुबान पे आके ठहर जाते हैं जैसे उन्हें तुम्हारे घर का रास्ता ना पता हो ।
कोशिश तो बहुत थी इकरार करने की कमबख्त ये जुबान वक्त पे बेवफाई सी कर जया करती थी
तुम और तुम्हारी गैर हाजिरी से यूं अब तो दोस्ती कर बैठे हैं...बस ये आंखें सरफरोशी से मिलने की गुजारिश करती रहती हैं।
कायनात से शिक़ायत करूं भी तो क्या करूं जब तुम्हें ही बना दिया। अब तारीफ करूं भी तो क्या करूं की बनाया तो खुद को सोम्प दिया ।
मैं गहराइयों मैं जाहर तेरे उस राज़ को जानने की जुस्तजू करु जिसे तुम इतनी नजाकत से अपने आक्रोश में छुपाती हो । तुझे करीब से जानना मेरे लिए इनायत हो
जब जब तुम सुकून का तौफा लाओ, मैं उससे तुम्हारी नवाजिश समझूं।